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अत्रोपपत्ति :द्वाभ्यां किलाहोरात्राभ्यामेकेनार्केन मण्डलम् । पूर्यतेऽहोरात्रयोश्च मुहूर्ताः षष्टिराहिताः ॥१२८॥ षष्टेश्च दशमो भागः षट्ते च त्रिगुणी कृतः । दशांशत्रयरूपाः स्युः षष्टेरष्टादश क्षणाः ॥१२६॥ तदेभिरष्टादशभिः मुहूत : परिधेरपि । उत्कृष्ट दिवसे युक्तं दशांशत्रयदीपनम् ॥१३०॥ दशांशद्वय रूपाश्च षष्टेः द्वादश निश्चिताः । तत् तैः द्वादशभिः युक्तं दशांशद्वयदीपनम् ॥१३१॥
यहां इस तरह से उपपत्ति (सिद्धि) है - एक सूर्य दो अहोरात में मंडल पूरा करते हैं, दो अहोरात के साठ मुहूर्त होते है, साठ का दशांश छः है उसे तीन गुणा करते अठारह मुहूर्त होते हैं, अतः उत्कृष्ट दिनमान में सूर्य तीन दशांश ३/१० परिधि में - अर्थात् घेराव में अठारह मुहूर्त तक प्रकाश करता है । साठ के दशांश को दो गुणा करने पर बारह होता है । अत: इस तरह समझना कि उस समय में सूर के घेराव के दो दशांश में बारह मुहूर्त तक प्रकाश देता है । (१२८ से १३१)
तथाहुः - इह छच्चिय दस भाए जम्बू द्दीवस्स दुन्नि दिवसयरा। ताविंति दित्तलेसा अब्भितरमंडले संता ॥१३२॥ चत्तारिय दस भाए जम्बू द्दीवस्स दुन्नि दिवसयरा। ताविंति मंदलेसा बाहिरए मंडले संता ॥१३३॥
कहा है कि - दोनों सूर्य जब अभ्यन्तर मंडल में होते हैं, उस समय जम्बू द्वी के छः दशांश भाग को दिप्त लेश्या से प्रकाशित करते है, और जब बाहर के मंडर में होता है, तब जम्बू द्वीप के दशांश भाग को मंदलेश्या से प्रकाशित करते हैं (१३२-१३३).
एवं प्रकाशक्षेत्रस्य दशांशकल्पना बुधैः । आपुष्करा कर्तव्या रवीनामथ तत्र च ॥१३४॥ . दिशत्येकोनपंचाशाचतुस्त्रिंशत् सहस्रकाः । . द्वि चत्वारिंशच्च लक्षाः कोटयेका परिधिर्भवेत् ॥१३५॥