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________________ (४११) विस्तार में से दोनों ओर के एक सौ अस्सी, एक सौ अस्सी योजन निकालने पर निन्यानवें हजार छ: सौ चालीस योजन रहेगा। इसमें से भी मेरू पर्वत का दस हजार योजन प्रमाण निकालने पर नवासी हजार छ: सौ चालीस योजन रहता है । (३८-४२) एतावान् मण्डल क्षेत्रे मेरूव्यासो न यद्यपि । तथापि भूतलगतो व्यवहारादि ह्योच्यते ॥४३॥ र सूर्य मंडल के क्षेत्र में मेरू पर्वत का इतना व्यास नहीं है, फिर भी उसका पृथ्वीतल पर दस हजार योजन का व्यास होता है, वही यहां पर व्यवहार से कहा (यह सूर्य मण्डल जमीन से आठ सौ योजन ऊंचा है । वहां मेरू पर्वत का विस्तार ११ योजन में एक योजन घटता है, तो ८०० योजन में ७२ ८/११ घटता है परन्तु उस हिसाब से नहीं लिया है ।) "तथाहुः श्री मलय गिरि पादा वृहत्क्षेत्र समास वृत्तौ । यद्यपि च नाम . मण्डल क्षेत्रे मेरो विष्कम्भो दश योजन सहस्रात्मको न लभ्यते किन्तु ऊनः तथापि धरणि तले दशयोजन सहस्त्र प्रयाणः प्राप्यते इति तत्रापि स तावान् व्यवहारतः विवक्ष्यते ॥" . . - 'इस सम्बन्ध में पूज्यपाद आचार्य देव श्री मलय गिरि की बृहत्क्षेत्र समास की टीका में कहा है कि - मंडल क्षेत्र मेरू पर्वत का व्यास दस हजार योजन जितना नहीं है, किन्तु कम है फिर भी पृथ्वीतल पर यह दस हजार योजन प्रमाण होने से यहां भी व्यवहार से दस हजार योजन कहलाता है ।' अस्मिन्नाशावर्द्धिते च सम्पद्यते यथोदितम् । - ओघ तो मण्डल क्षेत्रान्तरं मेरूव्यपेक्षया ॥४४॥ . उसके बाद इस राशि (८८६४०) को आधा करने से मण्डल के क्षेत्र का अन्तर मेरू पर्वत की अपेक्षा से पूर्व कहे अनुसार ४४८२० योजन ओघ से होता है। (४४) इति मेरूं प्रतीत्य मण्डल क्षेत्रा बाधा ॥१॥ इस प्रकार से मेरू पर्वत के अपेक्षी, मण्डल के क्षेत्र की ओघ से अबाधा कहा (१)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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