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________________ (४१२) एतदेवान्तरं मेरोः सर्वान्तर्मडलस्य च । अतः परं यदपरं नास्ति मंडलमान्तरम् ॥४५॥ पूर्व में कहा है वह अन्तर है, मेरू और सर्व से अभ्यन्तर मंडल बीच में है क्योंकि उसके बाद दूसरा अभ्यन्तर मंडल नहीं है । (४५) । सर्वान्तरानन्तरे तु द्वितीयमंडले ततः । साष्टाचत्वारिंशदशं वर्द्धते योजनद्वयम् ॥४६॥ . इत्थं प्राग्मंडलादग्य मंडल योजन द्वयम् । साष्टा चत्वारिंश दंशम बाधायां विवर्द्धते ॥४७॥ सर्वाभ्यन्तर मंडल के बाद का दूसरे मण्डल में दो योजन के. अड़तालीर अंश अन्तर बढ़ता है, और इसी तरह पूर्व के मंडल के आगे के मंडल में ओघ है अबाधा में दो योजन अड़तालीस अंश बढ़ता है । (४६-४७) एवं यावत्सर्वबाह्यमंडलं .मेरूतः स्थितम् ।। सहस्त्रैः पंचचत्वारिंशता त्रिंशै त्रिभिः शतैः ॥४८॥ इति मेरू प्रतीत्य प्रतिमंडलम बाधा ॥२॥ इस तरह से गिनते सर्व बाह्य मंडल मेरू पर्वत से पैंतालीस हजार तीन से तीस योजन दूर रहता है । (४८) इस प्रकार से मेरूपर्वत के आश्रित प्रत्येक मण्डल की अबाधा कहा है। यदाकौं चरतः प्राप्य सर्वाभ्यन्तर मंडलम् । तदा सूर्यस्य स्यात् परस्परमन्तरम् ॥४६॥ सहस्रा नवनवतिश्चत्वारिंशाश्चषट्शती । द्वीप व्यासादुभयतो मंडल क्षेत्र (१८०) कर्षणात् ॥५०॥ युग्मं ॥ जब दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल में घूमते हैं तब उनका परस्पर अन्त निन्यानवें हजार छ: सौ चालीस योजन होता है, द्वीप के एक लाख योजन प्रमाण विस्तार में से मंडल क्षेत्र के दोनों तरफ से एक सौ अस्सी योजन, कुल मिलाकर ३६० योजन निकाल देने से यह संख्या आती है । (४६-५०) . सर्वान्तरानन्तरौ तौ द्वितीयं मंडलं यदा । उपसंक्रम्य चरतः तदामिथोऽन्तरं तयोः ॥५१॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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