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यह सबको क्रमश: अदृश्य होता जाता है, और वापिस क्रमशः उन को दिखता जाता है, उसकी अपेक्षा से वह सूर्य अस्त, उदय होता माना जाता है । (३५)
भगवती सूत्र शतक ५ प्रथमोद्देशक वृत्तौ ॥ इति सूर्य मण्डल संख्या प्रसंगात्त द्विषय व्यवस्था च ॥२॥
इस प्रकार से भगवती सूत्र के पांचवे शतक के पहले उद्देश की टीका में कहा है ।' इस तरह से सूर्य के मण्डलों की संख्या के विषय में तथा प्रसंगोपांत उनके विषय की व्यवस्था सम्बन्धी कथन सम्पूर्ण हुआ । (२) . .
वाच्याऽथ मण्डलाबाधा त्रिविधा सा निरूपिता । ओघतो मण्डलक्षेत्राबाधाधिकृत्य मन्दरम् ॥३६॥ ' . मेरूमेवाधिकृत्यान्या चाबाधा प्रतिमण्डलम् । .. मण्डले मण्डलेऽबाधा तृतीया त्वर्कयोः मिथः ॥३७॥
अब इस मण्डल की अबाधा निरूपण करते हैं :- मण्डल की अबाधा तीन प्रकार की है । १- सर्व मंडलों की मेरू पर्वत को अपेक्षी के कारण ओघ से अबाधा, २- मेरू पर्वत को ही अपेक्षी से प्रत्येक मंडल की अबाधा और ३- दोनों सूर्य की परस्पर के मंडल-मंडल की अबाधा इस तरह तीन प्रकार कहा है । (३६-३७)
सहस्राणि चतुश्चत्वारिंशदष्टौ शतानि च । विंशानि मेरूतो दूरे मण्डल क्षेत्रमोघतः ॥३८॥ तथाहि जम्बू द्वीपान्तः सर्वाभ्यन्तर मण्डलम् । साशीतियोजनशतं स्थितं वंगाह्य सर्वतः ॥३६॥ ततश्च द्वीप विष्कम्भाल्लक्ष रूपाद्वियोज्यते । साशीति योजन शतं प्रत्येकं पार्श्वयोः द्वयोः ॥४०॥ सहस्रा नवनवतिश्चत्वारिंशा च षट्शती । . ईद ग्रूपः स्थितो राशिस्मादप्यपनीयते ॥४१॥ सहस्राणि दश व्यासो मेरोस्ततोऽवशिष्यते । नंवा शीतिः सहस्राणि चत्वारिंश च षट्शती ॥४२॥ युग्मं ।
इन तीन प्रकार में से प्रथम प्रकार-ओघ से अबाध विषय कहते है - सूर्य के मण्डलों का क्षेत्र मेरू पर्वत से चवालीस हजार आठ सौ बीस योजन दूर है। वह इस प्रकार :- सर्व से अभ्यन्तर मण्डल जम्बू द्वीप में चारों तरफ एक सौ अस्सी योजन अवगाही करके रहा है । इससे इस द्वीप के एक लाख योजन प्रमाण