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(४०६) या मण्डलानां विषय व्यवस्थेयमुदीरिता । भारतादिमध्यभागापेक्षया सा विभाव्यताम् ॥२६॥ मण्डलों की यह विषय व्यवस्था कही है, वह भरत क्षेत्र आदि के मध्य भा' की अपेक्षा से समझना चाहिए । (२६)
अन्यत्र तु स्वस्व भानूदय क्षेत्रे यथोदिता । मण्डलानां व्यवस्था साऽव्यक्ता वक्तुं न शक्यते ॥३०॥
परन्तु अन्यत्र तो उनकी अपने-अपने सूर्य के उदय क्षेत्र में जो व्यवस्था है, वह अव्यक्त (स्पष्ट न होने पर) होने से कह नहीं सकते । (३०)
एवं च - . येषामद्दश्यो दृश्यत्वं दृश्यो वा यात्यदृश्यताम् । यत्र तत्रैवेदोयास्तौ तेषां भानुमतो नृणाम ॥३१॥
इसी तरह जिस मनुष्य को जहां अदृश्य सूर्य दृश्य हो, और दृश्य सूर्य अदृश्य होता है, वहीं उस मनुष्य को उदय-अस्त होता है । (३१)
नन्वेवं सति सूर्य स्योदयास्तमयने खलु । स्यातामनियते बाढं. स्तो यदुक्तं पुरातनैः ॥३२॥
यहां प्रश्न करते हैं कि - यदि इस तरह हो तो सूर्य का उदय और अस्त 'अनियत हो जायेगा ? इसका उत्तर देते हैं - यह इसी तरह ही है, सूर्य उदय अस्त अनियत है । इस सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों ने कहा है कि :- (३२) .
जंह जह समए समए पुरओ संचरइ मक्खरो गयणे। तह तह इओ वि मियमा जायइ रयणीइ भावत्थो ॥३३॥
जैसे-जैसे समय-समय पर सूर्य आकाश में आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे वहां-वहां उसके पीछे रात्रि होती जाती है, यह स्वाभाविक ही है । (३३)
एवं च सइ नराणां उदयत्थमणाइ होतऽनिययाइ । . सइ देसकाल भेए कस्सइ किंचिव दिस्सए नियमा ॥३४॥
इस तरह अमुक मनुष्य को सूर्य का उदय-अस्त देशकाल के भेद से अनियमित होता है, परन्तु वह अमुक को तो नियमित रूप में दिखता है । (३४)
सइ चेव अनिट्ठिो रूद्धमुहूत्र्तो कमेण सव्वेसिं । तेसिं चीदाणिपि य विसय पमाणो रवी जेसिं ॥३५॥