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________________ (४०७) तथा - साष्ट चत्वारिंशद् भागां योजनशतत्रयीं त्रिंशाम । व्याप्याब्धौ मण्डल शतमर्कस्यैकोनविंश स्यात् ॥२०॥ तथा सूर्य के दूसरा एक सौ उन्नीस मण्डल, लवण समुद्र सम्बन्धी है, उन्होंने तीन सौ तीस योजन और अड़तालीस अंश जितने प्रदेश को रोक रखा है । (२०) एवं च मण्डलशतं खेश्चतुरशीतिमत् । पूर्वोक्तं मण्डक्षेत्रं समाक्रम्य व्यवस्थितम् ॥२१॥ अतः जोड लगाते सूर्य के एक सौ चौरासी मंडल, आकाश में पूर्वोक्त पांच सौ दस योजन और अड़तालीस अंश क्षेत्र को व्याप्त कर रहा है । (२१) "अत्र जम्बूद्वीपवर्तिनां पंच षष्टे: मण्डलानां विषय विभाग व्यवस्थायां संग्रहणी वृत्या धुक्तः अथं वृद्ध सम्प्रदायः ॥" जम्बू द्वीप वृत्ति में पैंसठ मंडलों के विषय की व्यवस्था के सम्बन्ध में तथा संग्रहणी की टीका आदि में इस तरह वृद्ध संप्रदाय है : यथैकतो मेरू गिरेः त्रिषश्टिः निषधोपरि । .. हरिवर्षजीवाकोटयां विज्ञेयं मण्डलद्वयम् ॥२२॥ मेरोरपरतोऽप्यूर्ध्व त्रिषष्टिः नीलवगिरेः । रम्यक जीवा कोटयां च मण्डले द्वे विवस्वतः ॥२३॥ मेरू पर्वत से एक दूसरे निषध पर्वत पर तिरसठ, और हरिवर्ष की जीवा की कोटी में दो, इस तरह पैंसठ मंडल है । मेरू के दूसरी ओर नीलवान पर्वत पर तिरसठ और रम्यक क्षेत्र की जीवा की कोटी (पूर्व-पश्चिमगत जो कोना है, वह कोटी कहलाता है) में दो इस तरह पैंसठ मंडल है । (२२-२३) ... इयं भरतैरवतापेक्षया मण्डलस्थितिः । अग्नि वायुस्थयोर्मेरोः ज्ञेया निषध नीलयोः ॥२४॥ यह मण्डल निषध और नीलवान् पर्वत पर, भरत और ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा से मेरू से अग्नि और वायव्य कोण में समझना । (२४) प्राग्विदेहापेक्षया तु मेरोरैशानकोणके । . स्युः त्रिशष्टिः नीलवति मण्डलानीति तद्विदः ॥२५॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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