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________________ (४०६) .. मण्डलानामन्तराणि स्युः त्र्यशीत्यधिकं शतम् । स्युः सर्वत्राप्यन्ततराणि रूपोनान्यङ्गलीष्विव ॥१३॥ योजनद्वयमानं स्यादेकैकं मण्डलान्तरम् । शतं त्र्यशीत्याभ्यधिकं द्विकेन गुण्यते ततः ॥१४॥ शतानि त्रीणि षट् षष्टयाभ्यधिकानि भवन्त्यतः। प्राच्यमत्र चतुश्चत्वारिंश प्रक्षिप्यते शतम् ॥१५॥ योजनानां पंचशती दशोत्तरा तथा लवाः । . अष्टचत्वारिंशदेषा मण्डल क्षेत्र विस्तृतिः ॥१६॥ इति सूर्य मण्डल क्षेत्रम् ॥१॥ इन मण्डलों के बीच-बीच अन्तर है, इन अंतरों की संख्या एक सौ तिरासी है, क्योंकि अन्तरा सर्वत्र एक रूप कम होता है, जैसे पांच अंगुलियों के बीच का अन्तर चार है तथा एक-एक अंतर दो योजन प्रमाण का है। इसलिए एक सौ तिरासी दो से गुणा करने से ३६६ योजन होता है । इसमें पूर्वोक्त विस्तार का १४४ योजन और ४८ अंश मिलाने पर कुल ५१० योजन और ४८ अंश होता है । यह मण्डलों के क्षेत्र का विस्तार हुआ । (१३-१६) इस तरह से सूर्य मंडलों के क्षेत्र विषय में कहा है । (१) समाक्रम्य योजनानामशीतिसंयुतंशतम् । पंचषष्टिः मण्डलानि जम्बूद्वीपे विवस्वतः ॥१७॥ अब सूर्य मंडलों की संख्या कहते हैं - जम्बू द्वीप में सूर्य के पैंसठ मण्डल हैं और वह एक सौ अस्सी योजन के जितना प्रदेश रोक कर रहा है । (१७) विशेषश्चायमत्र - पंचषष्टथा मण्डलैः स्यादेकोनाशीतियुक्शतम् । .. योजनानामे कषष्टि भागैर्नवभिरंचितम् ॥१८॥ ततः षट्षष्टितमस्य मण्डलस्य लवैः सह । स्यात् द्विपंचाशताशीतियुक् योजनशतं ह्यद्रः ॥१६॥ यहां इतना विशेष कहना है कि इन पैसठ मण्डलों के तो एक सौ उमासी १७६ योजन और ६ नौ अंश होता है । किन्तु इसमें इसके बाद के छियासठ में मण्डल के बावन अंश मिलाकर एक सौ अस्सी (१८०) योजन होता है । (१८-१६)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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