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________________ (४०५) इह प्रकरणे यत्र क्वाप्यंशा अविशेषतः । कथ्यन्ते तत्रेकषष्टिछिन्नांस्तान् परिचिन्तयेत् ॥६॥ इस प्रकरण में जिस स्थान पर सामान्य से अंश कहा हो, वह एक योजन का इकसठवां अंश-भाग समझना । (६) अभ्यन्तरादिभिः वाह्य पर्यन्तैः सूर्यमण्डलैः । आकाशं स्पृश्यते यत्तन्मण्डल क्षेत्रमुच्यते ॥७॥ क्षेत्र की व्याख्या में अभ्यन्तर से लेकर बाह्य में आखिर मंडल तक के सर्व सूर्य मंडल जितने आकाश प्रदेश स्पर्श करके रहा हो, उतना प्रदेश उस मंडल का क्षेत्र कहलाता है । (७) योजनानां पंचशती दशोत्तरा तथा लवाः । अष्टचत्वारिंशदस्य विष्कम्भाः चक्रवालतः ॥८॥ उस मंडल क्षेत्र का विस्तार चारों तरफ से पांच सौ दस योजन और अड़तालीस लव-अंश है । (८) तथाहि - अष्टचत्वारिंशंदशा विष्कम्भाः प्रतिमण्डलम् । मण्डलानां च चतुरशीत्याढयं शतमीरितम् ॥६॥ अष्ट चत्वारिशता सा गुण्यते मण्डलावली । . द्वात्रिंशानि शतान्यष्टाशीति भागा भवन्ति ते ॥१०॥ .विभज्यंते चैकषष्टया योजनानयनाय ते ।। पूर्वोदितानाम शानामेकषष्टयात्मकत्वतः ॥११॥ चतुश्चत्वारिंशमेवं योजनानां शतं भवेत् । अष्ट चत्वारिंशंदशाः शेषमत्रावशिष्यते ॥१२॥ वह इस तरह अड़तालीस-अड़तालीस 'अंश' का एक में एक सौ चौरासी मंडल है । अर्थात् एक सौ चौरासी को अड़तालीस से गुणा करने से आठ हजार आठ सो बत्तीस अंश आते हैं । अब इसको योजन करने के लिए इस संख्या को इकसठ से भाग देना चाहिए । क्योंकि इकसठ अंश का एक योजन कहा है । इस तरह इसमें से एक सौ. चवालीस योजन निकलता है, और ऊपर अड़तालीस अंश बढे । (१८६x४८ = ८८३२ ६१ = १४४ योजन ४८ अंश) (६ से १२)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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