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________________ (४०४) बीसवां सर्ग प्रणम्य परमज्ञान प्रभा प्रस्तावकं प्रभुम् । द्वीपेऽस्मिन्नथ सूर्येन्दु चाररीतिर्विभाव्यते ॥१॥ अब श्री जिनेश्वर भगवंत को नमस्कार करके उत्कृष्ट ज्ञानरूपी प्रभा को फैलाव करने वाले इस जम्बूद्वीप में रहे सूर्य और चन्द्रमा की गति के विषय में वर्णन करता हूँ । (१) सर्वेषां कालमानानामादिरादित्य एवहि । ततोऽस्य वक्तुमुचिता पूर्वं चारनिरूपण ॥२॥ सूर्य ही सर्व काल, मान आदि का मूल ही है, इसलिए प्रथम इस सूर्य की गति का निरूपण (कथन) करूंगा । (२) ___तथा : पंचमागे ॥ से केण ठेणं भंते एवं वुच्चइ सूरे आइच्चे । सूरे आइच्चे गोयम सूराइयाणं समयाइवा आबलियाइ वा जाव वा उस्सप्पिणीति वा अवसप्पिणीति वा ॥' _ 'सूर्य को आदित्य क्यों कहने में आता है ? इस विषय में पांचवे अंग श्री 'भगवती सूत्र में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है - हे गोतम ! सूर्य को आदित्य कहने का कारण यह है कि समय आवलि आदि से लेकर वह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी तक सर्व काल का माप सूर्य से होता है।' ' ततोऽत्र बहुवाच्चेऽपि प्रथमं सैवतन्यते ।। पंचानुयोगद्वारणि तस्यामाहः जिनेश्वराः ॥३॥ मंडलानामिह क्षेत्र प्ररूपणा ततः परम् । संख्या प्ररूपणा तेषां तदबाधा प्ररूपणा ॥४॥ ततः परं मण्डलानामन्तरस्य प्ररूपणा । चार प्ररूपणा चैषां भाव्यन्तेऽनुक्रमादिमा ॥५॥ .. इस सूर्य के सम्बन्ध में बहुत कहने का है, परन्तु प्रथम इसकी गति के विषय में कहते हैं । इसके लिए श्री जिनेश्वर भगवन्त ने पांच अनुयोग द्वार कहे है, मंडल की १- क्षेत्र प्ररुपणा, २- संख्या प्ररुपणा, ३- अबाधा प्ररूपणा, ४- अन्तर प्ररूपणा और ५- चार प्ररूपणा । इन पांचों का अनुक्रम से निरूपण करने में आयेगा । (३ से ५)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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