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________________ (४०१) एवं च संग्रह द्वारा यदुक्तमप्यनूदितम् । • सुखावबोधोद्यताना तदस्माकं न दोषकृत ॥२०५॥ इस प्रकार से मैने सरलता से ज्ञान प्राप्त कराने के लिए उपसंहार किया है। इस तरह कहते हुए पूर्व में रह गया हो तो इसमें हमारा दोष नहीं है । (२०५) जिनैश्चक्रिभिः सीरिभः शार्गिभिश्च, चतुर्भिः चतुर्भिः जघन्येमयुक्ता। सनाथस्तथोत्कर्षतस्तीर्थ नाथैः चतुस्त्रिशताऽयं भवेद्वीप राजः ॥२०६॥ चक्रवर्ति बलदेव केशवैः त्रिंशता परिचितः प्रकर्षतः। भारतैरवतयो द्वयं तथा ते परे खलु महाविदेहगाः ॥२०७॥ इस जम्बूद्वीप के अन्दर जघन्य से तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव चार-चार होते हैं । जबकि उत्कृष्ट से तीर्थंकर चौंतीस और चक्रवर्ती बलदेव तथा वासुदेव तीस-तीस होते हैं । इसमें भरत और ऐरवत क्षेत्र में दो ही होते हैं और शेष सब महाविदेह क्षेत्र में होते हैं । (२०६-२०७) जम्बू द्वीपे स्युः निधीनां शतनि षड्युक्तानि त्रीणि सत्तामपेक्ष्य । षट्त्रिंशते चक्रिभोग्या जघन्यादुत्कर्षेण द्वे शते सप्ततिश्च ॥२०८॥ इस जम्बू द्वीप के अन्दर विद्यमान में तीन सौ छ: निधान है, उसमें चक्रवर्ती को कम से कम छत्तीस और अधिक से अधिक दो सौ सत्तर उपयोग में आते है। (२०८) . चक्री गंगाद्यापगानां मुखस्थनेतानात्ता शेषषखंडराजयः । . . व्यावृत्तः सन्नष्टमस्य प्रभावात् साधिष्टातृनात्मसान्निर्मिमीते ॥२०६॥ - चक्रवर्ती समस्त छ: खंड राज्य का दिग्विजय करके वापिस आता है, तब अट्ठम (तीन उपवास) तप के प्रभाव से गंगा आदि नदियों के मुख में रहे उन निधानों को और उसके अधिष्टाताओं को अपने आधीन करता है । (२०६) . पंचाक्षरत्नद्विशती दशाधिकोत्कर्षेण भोग्यात्र च चक्रवर्तिनाम् । जघन्यतोऽष्टाभ्यधिकैव विंशतिरेकाक्षरत्नेष्वपि भाव्यतामिदम् ॥२१०॥ अधिक से अधिक दो सौ और दस और कम से कम अट्ठाईस पंचेन्द्रिय रत्नो का चक्रवर्ती के उपयोग में आता है, एकेन्द्रिय रत्नों के सम्बन्ध में भी इसी ही तरह समझना । (२१०) चन्द्रौ द्वौ दिनेन्द्राविह परिलसतो दीपकौ सद्मनीव । षट् सप्तत्या समेतं ग्रह शतमभितः कान्तिमाविष्करोति ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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