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________________ . (३६६) ___ अपने सरोवर के विस्तार के अस्सीवें भाग में जो संख्या आती है उसे दक्षिणाभिमुख नदियों के मुख का विस्तार समझना, और इसके अनुसार अपने सरोवर के विस्तार के चालीसवें भाग में जो संख्या आती है उसे उत्तराभिमुख नदियों के मुख का विस्तार समझना । मन्दराचल से उत्तर में दक्षिणाभुिखी तथा उत्तराभिमुखी नदियों की विपर्यता के कारण मन्दराचल से दक्षिण में यह व्यवस्था है। (१६०-१६२) सर्वासां मुख विस्तारे दशम्ने प्रान्तविस्तृतिः । व्यास पंचाशत्तमांशः सर्वत्रोद्वेध आहितः ॥१६३॥ सब नदियों के मुख के विस्तार को दस से गुणा करते, अन्तिम स्थान के विस्तार का प्रमाण आता है, और गहराई सर्वत्र विस्तार के पचासवे भाग जितना होता है । (१६२) मुखपर्यन्त विस्तारविश्लेषु गतयोजनैः । गुणिते पंचचत्वारिंशत्सहस्र विभाजिते ॥१६४॥ लब्धं यत्तदुभयतो व्यासवृद्धिरभीप्सिते । योजनादौ गते सर्वास्वपि तस्यार्धमेकतः ॥१६५॥ युग्मं ॥ .. प्रत्येक नदी में एक स्थान में से दूसरे स्थान में जाते, इसकी चौड़ाई कितनी हती है, उसे जानने के लिए, मुख और अन्तिम सीमा तक के विस्तार में जितने योजन कहा गया हो उतने योजन से गुणा करके पैंतालिस हजार से भाग देने पर जो संख्या आती है, वह दोनों तरफ की वृद्धि समझना । इसका आधा करते, एक तरफ की वृद्धि होती है । (१६४-१६५) चतुःषष्टिः विजयेषु सप्तवा चतुर्दश । द्वादशान्तर्नदीनां च कुंडानां नवतिस्त्वियम् ॥ १६६॥ इस जम्बू द्वीप के अन्दर कुंड, सब मिलाकर नब्बे हैं, बत्तीस विजय में, चौंसठ, सात क्षेत्रों में, चौदह और बारह अन्तर्नदियों में बारह है । (१६६) द्विद्विज प्रमाणानि कुंडानि जिह्विकादिवत् । तुल्यान्यन्तर्निम्नगानां मिथो विजयगानि च ॥१६७॥ इन कुण्डों का मान (माप) जिव्हादि के समान उत्तरोत्तर दो गुणा-दो गुणा होता है और अन्तर्नदियां तथा विजय के कुण्ड एक समान है । (१६७)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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