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(३८६) देवोत्तरकु रुस्थेषु हृदेषु दसु धुवम् । . प्राक् प्रत्यक् च दशदशकांचनाचलभावतः ॥१३४॥
द्वे शते कांचननगाः परस्परानुकारिणः । स्थिताभोक्तुं चतसृभिः पंक्तिभिः बान्धवा इव ॥१३५॥ युग्मं ॥
उत्तर कुरु और देवकुरु के दसों सरोवर के दो तरफ में, मानो चार श्रेणीबद्ध भोजन करने के लिए बैठे बन्धुजन हों, इस तरह दस-दस पूर्वा दिशा के और दस-दस पश्चिम दिशा के मिलाकर कुल दो सौ एक समान, कांचन पर्वत हैं। (१३४-१३५)
गजदन्तौ सौमनसगन्धमादन संज्ञितौ । रूप्यपीतरत्नमयौ सप्तकू टोपशोभितौ ॥१३६॥ विद्युत्प्रभमाल्यवन्तौ वैडूर्यतपनीयजौ । नवकूटांचितौ तुल्या इत्याकृत्या नगा अमी ॥१३७॥ युग्मं ॥
रूप्य (चान्दी) मय और पीले रत्नमय, सौमनस और गंधमादन नामक दो गजदन्त पर्वत है, जो सात-सात शिखर वाले हैं और परस्पर एक समान है, और वैडूर्यमय और सुवर्णमय विद्युत्प्रभ और माल्यवान नाम के दो गजदंत पर्वत हैं, वे नौ-नौ शिखर वाले हैं वे परस्पर एक समान है । (१३६-१३७)
चतुः कूटाः षोडशापि वक्षस्कारादयः समाः । विचित्र चित्रयमकाः समरूपाः परस्परम् ॥१३८॥
चार-चार कूट वाले परस्पर एक समान सोलह वक्षस्कार पर्वत हैं तथा चित्र विचित्र और दो यमक ये चार एक समान पर्वत है ।
. द्विशत्येकोनसप्तत्याधिके त्यत्र धराधराः ।
हिमवच्छिखरीस्पृष्टाः दंष्ट्राश्चाष्टौमिथः समाः ॥३६॥
इस तरह कुल दो सौ उनहत्तर पर्वत हैं । हिमवान और शिखरी पर्वत की आठ-आठ दाढाए है वे भी एक समान हैं । (१३६)
वैताढयेषु नव नव कटाः प्रत्येकमित्यतः । सर्ववैताढय कूटानि षडुत्तरं शतत्रयम् ॥१४०॥ प्रतिवैताढयमेतेषु कूटत्रयं तु मध्यमम् । सौवर्ण शेषकूटाश्च रालिका इति तद्विदः ॥१४१॥