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. (३८३) योजन की ऊंचाई से रक्ता प्रपात कुंड में गिरती है । वहां से वापिस उत्तर दिशा के तोरण में से निकल कर उत्तर दिशा में बहती हुई सात हजार नदियों के साथ में वैताढय पर्वत की सीमा में आती है। वहां खंड प्रपाता-गुफा की पूर्व में इसी पर्वत को भेदन कर मार्ग में दूसरी सात हजार नदियों को मिलाकर, कुल मिलाकर चौदह हजार नदियों के परिवार सहित जगती-कोट को भेदन कर पूर्व समुद्र में जाकर मिलती है । (८५-६१)
पश्चिमेन तोरणेन हदादस्माद्विनिर्गता । रक्तावती पश्चिमायां प्रवृत्ता पर्वतोपरि ॥२॥ अतिक्रम्य पंचशतीं निजावर्तन कूटतः । पर्वतोपर्युत्तरस्यां व्यूढा तत्र व्यतीत्य च ॥६३॥ त्रयोविशां पंचशती साग्रं सार्धकलात्रयम् । वज्रमय्या जिव्हिकया योजनेंकशतोन्नतात् ॥६४॥ निपत्य पर्वतात् रक्तावती प्रपातकुण्डके । . रोषावेशात् भामिनीय, दत्तझंपा महावटे ॥६५॥ उदीच्येनाध्वना तस्मादुदग्मुखी विनिर्गता । आवैताढयान्तिकं सप्तनदी सहस्रंसेविता ॥६६॥ कन्दरायाः तमस्त्रायाः पश्चिमायां धराधरम । द्रुतं विभिद्य वैताढयमुत्तरार्ध समागता ॥६७॥ उदीच्यैः सप्तभिः सिन्धुसहस्त्रैः सह गच्छति । पश्चिमाब्धाविति नदीचतुर्दशसहस्रयुक् ॥६८॥
... . इति शिखरी पर्वतः ॥ तीसरी रक्तवती नामक नदी है, वह इसी सरोवर के पश्चिम तोरण में से निकलकर पश्चिम दिशा के पर्वत पर पांच सौ योजन जाने के बाद अपने आवर्तन कूट से उत्तर दिशा में मुड़कर पांच सौ तेईस योजन साढ़े तीन कला जाकर, एक सौ योजन ऊंचे पर्वत से किसी क्रोधाविष्ट, अभिमानी स्त्री बड़े कुए में गिरती है, वैसे वज्रमय जीव्हाकार में रक्तावती प्रपातकुंड में गिरती है। वहां से उत्तर मार्ग से निकल कर उत्तर दिशा की ओर बहती हुई वैताढय पर्वत की सीमा तक में सात हजार नदियों के परिवार सहित तमिस्रा गुफा से पश्चिम में वैताढय पर्वत को भेदन कर, उत्तरार्ध में आकर और उत्तर दिशा की सात हजार नदियों को मिलाने से कुल चौदह