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________________ (३८२) प्राक् परावर्त्य हैरण्यवत पूर्वार्धमादित्ः । सूत्रधारस्येव रज्जुः द्विधा विदधती क्रमात् ॥८३॥ . अष्टाविंशत्या सहस्त्रैः नदीभिः परिपूरिता । गृहिणीब स्वामिगेहे विशति प्राच्य वारिधौ ॥१४॥ त्रिभि विशेषकं ॥ सुवर्ण कूला नदी दक्षिण मार्ग से निकलती है और बहती हुई अपने नाम के ही कुंड में गिरती है। वहां से वापिस निकलकर हैरण्यवंत क्षेत्र के उत्तरार्द्ध को दो भाग में विभाजन करती, विकटापाति पर्वत से आधे योजन दूर से पूर्व दिशा में मुड़कर बढई की रस्सी के समान इसी हैरण्यवत के पूर्वार्द्ध को भी दो भाग में बंटवारा करती, मार्ग में क्रम से अपने में अट्ठाईस हजार नदियां मिलाती, उसे साथ में लेती, पति के घर जाती एक स्त्री के समान पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है। (८१-८४) अस्मादेव हृदात् प्राच्यतोरणेन विनिर्गता । रक्तानदी पूर्वदिशि प्रवृत्ता पर्वतोपरि ॥५॥ योजनानां पंचशतीमतिक्रम्य ततः परम ।। रक्तावत्तत्न कूटस्याधस्तादुत्तरतो भवेत् ॥८६॥ त्रयोविंशां पंचशतीं योजनानां कलात्रयम् । सार्द्धं गत्वाधिकमुदक् शिखरिक्ष्माधरो परि ॥७॥ वजजिव्हिकयोत्तीर्यं कुंडे रक्ताप्रपातके । शतयोजनप्रपाता भुंजगीवाविशत् बिले ॥८॥ उदीच्य तोरणेनास्माद्वि निर्गत्योत्तरा मुखी । नदी सप्तसहस्राढया वैताढयागिरिसीमया ॥८६॥ दर्याः खण्डप्रपातायाः प्राच्यां वैताढय भूधरम् । ' भित्वोदीच्यैः सप्तनदी सहस्रैराश्रिता ध्वनि ॥६०॥ .सहस्रः सरितामेवं चतुर्दशभिराश्रिता । । विभिद्य जगतीं पूर्वार्णवेऽसौ विशति द्रुतम् ॥६१॥ इसी सरोवर के पूर्व दिशा के तोरण में से रक्तनदी निकलती है, और पर्वत पर उसी दिशा में पांच सौ योजन जाने के बाद, रक्तावर्तन नामक शिखर के पास में जाकर उत्तर दिशा में बहती है । इस तरह पांच सौ तेईस योजन और साढ़े तीन कला उत्तर तरफ बहती है । एक नागिन जैसे अपने बिल में प्रवेश करती हों, वैसे ही एक
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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