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हजार नदियों के परिवार सहित पश्चिम समुद्र में मिलती है । (६२-६८) इस तरह शिखरी पर्वत का वर्णन सम्पूर्ण हुआ।
उत्तरस्यां शिखरिण उदीच्यलवणार्णवात् । दक्षिणस्यामैरवतक्षेत्रं भाति मनोहरम् ॥६६॥
शिखरी पर्वत के उत्तर में और उत्तर लवण समुद्र से दक्षिण दिशा में ऐरवत नाम का मनोहर क्षेत्र आया है । (६६) .
ऐरावतः सुरो ह्यस्य स्वामी पल्योपमस्थितिः । वसत्यत्र ततः ख्यातमिदमैरवताख्यया ॥१०॥
एक पल्योपम के आयुष्य वाला ऐरवत देव, नामक स्वामी से अधिष्ठित होने से इस क्षेत्र का नाम ऐरवत पड़ा है । (१००)
भरतस्य प्रतिबिम्बमिवेदं संमुखेऽम्बुधौ । ... तत्प्रमाणं तेन तुल्यं सदा तदनुवर्तते ॥१०१॥ .
सन्मुख में समुद्र रहने से मानो भरत क्षेत्र ही प्रतिबिम्बत बना हो, ऐसा यह क्षेत्र दिखता है, क्योंकि यह प्रमाण में इसके समान ही है, और हमेशा इसका ही अनुवर्ततन करता है । (१०१)
भानुना भासिते तस्मिस्तेनेदमपि भासितम् । इन्दुना शोभते तत्रादोऽपि स्यात्तेन शोभितम् ॥१०२॥ . तद्यदा षड्भिररकैः भिन्नां भिन्नां दशां श्रयेत् । तथेदमपि सन्मित्रमिव मित्रानुवृत्तिकृत् ॥१०३॥ . जिने तत्र जिनोऽत्रापि चक्रयत्र तत्र चक्रिणि । वासुदेवादिषु सत्सु तत्रात्रापि भवन्ति ते ॥१०४॥ इदं दशाश्चर्ययुतं स्यात्तत्राश्चर्यशालिनि । . हसतीव निजं मित्रं भरतं तुल्यचेष्टया ॥१०॥
जब भरत क्षेत्र में सूर्य का उदय होता है, तब वहां भी उदय होता है । चन्द्र वहां उदय होता है, तब यहां पर भी उदय होता है । भरत क्षेत्र के जैसे अलग-अलग स्थिति वाले छः हजार आरे आते हैं, वैसे ही छ: आरों में से यह क्षेत्र भी व्यतीत होता है। क्योंकि एक उत्तम मित्र हो, वह अपने मित्र के अनुसार चलता है । जब भरतक्षेत्र में जिनेश्वर, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि होते हैं, तब इस क्षेत्र में भी होते है। वहां