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________________ (३७७) तादृक् क्षेत्र विभेदोत्थ पातकानुशयादिव । पपात पश्चिमाम्भोधौ तद्दष्कृत जिधांसया ॥५४॥ , इति रूक्मि पर्वत ॥ दूसरी 'रूप्यकला' नाम की नदी है, वह इसी ही सरोवर के उत्तर दिशा के तोरण में से निकल कर, उत्तर दिशा के मार्ग में जाकर, अपने प्रपात कुंड में गिरती है, वहां से बाहर निकलकर, हैरण्यवंत क्षेत्र के दक्षिण दिशा के अर्ध भाग के दो विभाग करती हुई विकटापति पर्वत से दो कोस दूर रहकर इसी हैरण्यवंत के उत्तर तरफ के अर्धभाग को भी दो विभाग में विभाजन करती हुई रास्ते में अट्ठाईस हजार नदियों को साथ में मिलाती हैरण्यवंत क्षेत्र के भेदन से लगे पाप-प्रायश्चित के लिए ही, पश्चिम समुद्र में जाकर गिरती है । (५१-५२) इस तरह रूक्मि पर्वत का वर्णन हुआ। क्षेत्रं च हैरण्यवतमुदीच्यां रूक्मिणो गिरेः । - दक्षिणस्यां शिखरिणोद्वयोर्लीनमिवान्तरे ॥५५॥ ___अब हैरण्यवंत क्षेत्र का वर्णन करते हैं - यह क्षेत्र रुक्मि पर्वत के उत्तर में और शिखरि पर्वत की दक्षिण में आया है । मानो इन दोनों पर्वतों के बीच में छिप कर बैठा हो इस तरह दिखता है । (५५) रूप्य हिरण्य शष्देन सुवर्णमपि वोच्यते । ततो हिरण्य वन्तौ द्वौ तन्मयत्वात् धराधरौः ॥५६॥ रुक्मी च शिखरी चापि तद्धिरण्यवतोरिदम् । हैरण्यवंतमित्याहु : क्षेत्रमेतत् महाधियः ॥५७॥ हिरण्य अर्थ चान्दी होती है और सुवर्ण भी होता है। इससे रुक्मि और शिखरी पर्वत जो दोनों अनुक्रम से चान्दीमय और सुवर्णमय है, इन दोनों का 'हिरण्यवत' नाम कहा जा सके इसलिए यह हिरण्यवंत पर्वत के सम्बन्ध वाला जो क्षेत्र है वह हैरण्यवंत क्षेत्र कहलाता है । (५६-५७) प्रयच्छति हिरण्यं वा युग्मिनामासनादिषु । यत् सन्ति तत्र बहवः शिलापट्टा हिरण्यजाः ॥८॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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