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इस महाविदेह क्षेत्र के अन्दर तीर्थंकर भगवन्त, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलदेव जघन्य से चार होते हैं । अब उत्कृष्ट से कहते हैं :- (२७६)
द्वात्रिंशत्तीर्थनाथाः प्रतिविजयभिहै कै कभावेन बोध्याः । अष्टाढया विंशतिः स्यात् प्रबलहल भृतां शाह्मिणां चक्रिणा च ॥ व्यत्यासोऽन्योऽन्यमेषामकथि गणधरेन्द्रैः प्रकर्षाप्रकर्षे ॥२७७॥
और उत्कृष्ट से प्रत्येक विजय में एक-एक तीर्थंकर कुल बत्तीस तीर्थंकर भगवन्त होते हैं । तथा अठाईस बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती होते हैं, यहां गणधर भगवन्त ने उत्कृष्ट से और जघन्य से परस्पर फेर-फार कहा है उसका कारण यह है कि चक्रवर्ती के साथ में एक ही स्थान पर बलदेव था । वासुदेव की उत्पत्ति नहीं होती । (२७७)
कहने का भावार्थ यह है जब २८ विजय में २८ चक्रवर्ती होते हैं, उस समय शेष चार विजय में वासुदेव बलदेव होते हैं। और जब २८ विजय में वासुदेव-बलदेव होते हैं, उस समय में शेष चार विजयं में ४ चक्रवर्ती होते हैं।
विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वं प्रदीपोपमे। सर्गो निर्गलि तार्थ सार्थ सुभगः पूर्णोऽयमष्टादशः ॥२७८॥
॥इति अष्टादशः सर्गः ॥ सारे विश्व को आश्चर्यजनक करने वाले कीर्तिमान श्री कीर्तिविजय वाचकेन्द्र के अन्तेवासी तथा माता राज श्री और पिता तेजपाल के पुत्र विनय विजय जी ने जगत के निश्चित तत्वों को प्रकाशित करने में दीपक समान जो यह काव्य ग्रन्थ रचा है, उसका निर्मल अर्थों के समूह से सुभग यह अठारहवां सर्ग विघ्नरहित सम्पूर्ण हुआ है । (२७८)
-अठारहवां सर्ग समाप्त