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________________ (३६७) लोकमध्यो लोकनाभिः सूर्यावर्तोऽस्तसंज्ञितः । दिगादि सूर्यावरणावतंसक नगोत्तमाः ॥२७०॥ एभिः षोडशभिः ख्यातो नामभिः भूधरो भूवि । स्पृशन्नभ्रमदभ्रांशुः कलाभिरिव चन्द्रमाः ॥२७१॥ विशेषकं ॥ यह मेरू पर्वत मंदर, मेरू, सुदर्शन, स्वयंप्रभ, मनोरम, गिरिराज, रत्नोच्चय, शिलोच्चय, लोकमध्य, लोकनाभि, सूर्यावर्त, अस्त दिगादि, सूर्या वरण, अवतंसक और नगोत्तम ऐसे सोलह नाम से प्रसिद्ध है । मानो सोलह कला वाला निर्मल चन्द्र आकाश को स्पर्श करके रहे हो ऐसे दिखता है । (२६६-२७१) तत्रापि मन्दर इति मुख्यं नामैषु नामसु । मन्दराख्यः सुरोह्यत्र स्वामी पल्योपमस्थितिः ॥२७२॥ महर्द्धिको निवसति ख्यातं तद्योगतो ह्यदः । यद्वेदं शाश्वतं नाम भरतैरवतादिवत् ॥२६३॥ युग्मं ॥ इनके सोलह नामों में भी मुख्य तो 'मन्दर' नाम है । इस पर्वत का स्वामी पल्योपम के आयुष्य वाला एक.मंदर नाम का देव है । इसके नाम पर से यह नाम पड़ा हो ऐसा, कहलाता है । अथवा तो भरत ऐरावंत आदि के समान इसका नाम शाश्वत ही समझना । (२७२-२७३) : एवं महाविदेहानां स्वरूपं लेशतो मया । कीर्तितं कीर्तिविजय गुरुक्रमकजालिना ॥२७४॥ इस तरह कीर्तिमान श्री कीर्ति विजय जी गुरु महाराज के चरण रूपी कमल आगे भ्रमण करते, भ्रमर समान मेरे जैसे ने महाविदेह क्षेत्र के अल्पमात्र स्वरूप का वर्णन किया है । (२७४) ... .. सततममहतमोक्षं न्यलक्ष्मीनिधानम् जयतिजगतिवर्ष श्रीविदेहाभिधानम् । अविरहितमनेकैर्देवदेवैर्नदेवैः अतिबल बलदेवैः वासुदेवैः सदैव ॥२७॥ अखंड मोक्ष लक्ष्मी के निधान स्वरूप तथा अनेक इन्द्र महाराजा, राजा (चक्रवर्ती) बलदेव और वासुदेवों का निरन्तर सहयोग वाला, यह विदेह क्षेत्र दिन प्रतिदिन विजयी बनता है । (२७५) तत्र तीर्थंकर चक्रवर्ती नाम वासदेव बलदेवयोरपि । स्याज्जघन्य पदतश्चतुष्टयम् ब्रूमहेऽथ परम प्रकर्षतः ॥२७६॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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