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________________ (३६६) .. असौ पद्मवेदिकया परीता काननेन च । सहकारलतेवोच्चैरालवालेन राजते ॥२६३॥ . यह चूलिका पद्मवेदिका और वनखंड से घेराव वाली है, इसके लिए क्यारी से घेराव वाली आम्रलता के समान शोभायमान दिखती है । (२६३) एतस्याच्च शिरोभागे कमनीय महीतले । प्राप्नुवन्ति परां प्रीतिं निर्जराः सुखनिर्भराः ॥२६४॥ ... इसकी मनोहर भूमि पर रहकर देवता सदैव सुख में निमग्न होकर उत्कृष्ट प्रीति- आनंद प्राप्त करते है । (२६४) . . मध्येऽत्र सिद्धायतनं तदेकं क्रोशमायतम् । . तथा क्रोशार्द्धविस्तारं देशोनंक्रोशमुन्नतम् ॥२६॥ इसके मध्य भाग में सिद्ध मंदिर है, उसकी लम्बाई एक कोस है, चौड़ाई आधा कोस और ऊंचाई एक कोस से कुछ कम है । (२६५) अष्टोत्तरशतं तत्र प्रतिमाः शाश्वताहताम् । वैढाढयचैत्यवत्सर्वं वक्तव्यमिह वर्णनम् ॥२६६॥ इस सिद्ध मंदिर में शाश्वत तीर्थंकर भगवन्त की एक सौ आठ प्रतिमाएं हैं। इसका वर्णन वैताढय पर्वत के चैत्य अनुसार जानना । (२६६) अनेके सुरगन्धर्वाः तत्र गायन्ति लीलया । . शृण्वन्ति श्रोत्रसुभगं जिन गीतं सुरेश्वराः ॥२६७॥ वहां अनेक गन्धर्व श्री जिनेश्वर भगवन्त के कर्णप्रिय गुणगान करते हैं, और उसे सुरेन्द्र श्रवण करते हैं । (२६७) . जिनाग्रे तत्र नृत्यन्त्यः कुर्वन्ति त्रिदशांगनाः । मेरूमौलिस्थमरूतां वंशारूढनटीभ्रमम् ॥२६८॥ वहां देवांगनाए श्री जिनेश्वर भगवान के आगे नृत्य करती है, उस मेरू पर्वत के शिखर पर रहे देव समुदाय को, वांसं पर नृत्य करी कोई नटनियां हो, इस तरह भ्रम उत्पन्न करती है । (२६८) किंचायं मन्दरो मेरू: सुदर्शनः स्वयंप्रभः । . मनोरमो गिरिराजो रत्नोच्चय शिलोच्चयौ ॥२६६॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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