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(३६५) इस चूलिका में प्रत्येक एक योजन ऊपर चढ़ते मूल के विस्तार का पांचवा भाग घटता है । (२५६) । मेरोर्य थैकादशभिःयोजनं इसेत् । .
क्षीयते योजनं तद्वत् पंचभिः योजनैरिह ॥२५७।।
जिस तरह मेरू पर्वत पर प्रत्येक ग्यारह योजन में मूल के विस्तार में एक योजन घटता जाता है, वैसे इस चूलिका में प्रत्येक पांच योजन में एक योजन की कमी होती जाती है । (२५७)
उत्क्रान्तायां मूलभागाद्यथा योजनविंशतौ । विंशतेः पंचमो भागः स्याच्चतुर्योजनात्मकः ॥२५८॥
तस्मिश्च मूल विष्कम्भादपनीते भवेदिह । . विष्कम्भो योजनान्यष्टावित्थं सर्वत्र भावना ॥२५६॥ युग्मं ।
उदाहरण तौर पर मूल से बीस योजन ऊपर चढने में वहां बीस का पांचवां भाग जो चार है, उतने योजन कम होते हैं । अतः मूल के बारह योजन के विस्तार में से चार योजन आता है, तो वहां आठ योजन का विस्तार रहता है । इसी तरह सर्वत्र गिनती कर लेना चाहिए । (२५८-२५६) .. । यद्वा मौलेरतिक्रान्तमधो यद्योजनादिकम् ।
बिभक्ते पंचभिस्तस्मिन् लब्धे चतुर्भिरन्विते ॥२६०॥
अथवा यदि ऊपर से नीचे उतरना हो तो, उस स्थल का विस्तार जानना हो तो, उतना नीचे उतरने के बाद उसके पांचवे भाग से जो संख्या आए, उसमें चार मिला देना चाहिए । (२६०) .
जायतेऽभीप्सिते स्थाने विष्कम्भोऽत्र यथोर्ध्वतः । अपक्रान्तौ योजनानां विंशतेः स विभाव्यते ॥२६१॥ विंशतेः पंचभिभागे योजनानां चतुष्टयी । लब्ध्वा चतुभिर्युक्ताष्टौ योजनानीति भावना ॥२६२॥
जैसे कि -ऊंचे स्थान से बीस योजन नीचे उतरने के बाद वहां का विस्तार जानना हो तो, बीस के पांचवे भाग देने पर चार आता है, उसमें चार मिलाने पर आठ आता है । यह आठ योजन उस स्थान का विस्तार है या उसकी चौड़ाई होती है। इसी तरह उस स्थान पर गिनती कर देना चाहिए । (२६१-२६२)