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इसी ही तरह भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल की परस्पर साम्यता होने के कारण पूर्वोक्त संख्या से कम, ज्यादा तीर्थंकरों का जन्म नहीं होता है । (२४६)
पाण्डकाख्यवनस्यास्य मध्यभागे सुनिश्चिते । चकास्ति चूलिका मेरोर्वर्यवैडूर्यरलजा ॥२५०॥ विस्फुरत्पंडकवन शरावान्तः प्रतिष्ठितः । . यवारक स्तंव इव भद्रकृज्जिनजन्मनि ॥२५१॥. युग्मं ॥
इस पांडक वन में सुनिश्चित मध्य भाग में उत्तम वैडूर्य रत्नों से बनी हुई मेरू पर्वत की चूलिका, मानो श्री जिनेश्वर भगवान के कल्याणकारी जन्म समय में प्रफुल्लित बनी पांडकवन रूपी कसोरे के अन्दर जुवारे का रोपण किया हो इस तरह शोभायमान लगता है । (२५०-२५१) . . .
चत्वारिंशद्योजनानि तुंगत्वेन भवेदसौ । ... द्वादशैव योजनानि मूले विष्कम्भतो मता ॥२५२॥ .. मध्ये च योजनान्येष्टौ चत्वार्युपरि विस्तृता । उदस्तादुत्थगोपुच्छसुस्थसंस्थानशालिनी ॥२५३॥
इसकी चौड़ाई चालीस योजन की है, चौड़ाई मूल में बारह योजन की है, मध्य में आठ योजन की है, और ऊपर चार योजन का विस्तार है । इसका आकार गायके ऊंचे किए पुच्छ के समान होता है । (२५३-२५३)
सप्तत्रिंशद्योजनानि सातिरेकाणि किंचन । मूले ऽस्या परिधिर्मध्ये साधिका पंचविंशतिः ॥२५४॥ साधिकानि द्वादशैतत्परिक्षेप उपर्यथ । व्यासानुसारतो भाव्योऽन्यत्रापि परिधिः बुधैः ॥२५५॥ युग्मं ।
इसका घेराव मूल में सैंतीस योजन से कुछ अधिधक है, मध्य विभाग में पच्चीस योजन से कुछ अधिक है, और ऊपर बारह योजन से कुछ अधिक है । इसका अन्यत्र घेराव कहा हो तो व्यास के अनुसार से गिनकर निकाल देना चाहिए। (२५४-२५५)
अर्थतस्यां चूलिकायामुत्क्रान्ते योजनादिके । मूलात्तत्पंचमलवः क्षीयते मूलविस्तृतेः ॥२५६॥