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इस शिला पर मणि रत्न से मनोहर सिंहासन रहा है, और उस सिंहासन पर ऐरवत क्षेत्र में जन्म लेने वाले श्री तीर्थंकर भगवान का अभिषेक करने में आता है । (२४३)
एवं मेरूगिरावस्मिन्नभिषेकासनानि षट् । अभिषेकस्तु युगपच्चतुर्णामथवा द्वयोः ॥२४४॥
इस तरह इस मेरू पर्वत पर अभिषेक करने के छः आसन है, वहां एक साथ में चार अथवा दो जिनेश्वर भगवन्तो का अभिषेक होता है । (२४४)
पूर्वापराविदेहेषु निशीथेऽहं जनिर्यदा ।
भरतैरवत क्षेत्रे मध्यान्ह्नः स्यात्तदा यतः ॥२४॥
जिस समय पूर्व पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में अर्हत् परमात्मा का जन्म मध्य रात्रि में होता है, उस समय भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में तो दिन का मध्यान्ह काल होता है । (२४५)
शेषेष्वपि व्यवस्थेयं तुल्या चतुर्षु मेरूषु ।। सिंहासनान्यतस्त्रिंशत् सर्वसंख्यया ॥२४६॥
शेष चार मेरू पर्वत पर भी यही व्यवस्था है । अतः सर्व मिलाकर तीस सिंहासन होते हैं । (२४६) .
च्शितस्तीर्थराजां तु युगपन्न जनिर्भवेत् । भरतै स्वतविदेहे षु कालविपर्ययात् ॥२४७॥ युक्तैवोक्ता ततः प्राच्यैरहतां युगपज्जनिः । उत्कर्षाद्विशतेरेव दशानां च जघन्यतः ॥२४८॥
भरतक्षेत्र ऐरवत क्षेत्र तथा महाविदेह क्षेत्र में काल के विपर्यय (उलटपलट) होने के कारण एक साथ में तीस तीर्थकरों का जन्म नहीं होता है, इसलिए पूर्वाचार्यों ने इस तरह कहा है कि - उत्कृष्ट बीस तीर्थंकर भगवान का और जघन्य रूप में दस भगवान का जन्म होता है । यह बात युक्ति पूर्ण ही कही है। (२४७-२४८)
भारतेष्वैरावतेषु कालस्य साम्यतो मिथः । हीनाधिकानां पूर्वोक्तसंख्यातो न जनिर्भवेत् ॥२४६॥