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(३६२) . . पूर्व पश्चिम विस्तीर्णा सा दक्षिणोत्तरायता । ऋजुता स्याः पश्चिमाया वक्रता चूलिका दिशि ॥२३७॥
यह पूर्व पश्चिम दिशा में चौड़ी है, और उत्तर दक्षिण दिशा में लम्बी है, एवं यह पश्चिम की ओर सरल सीधी है, और चूलिका की ओर टेडी है । (२३६)
स्यात् प्रतीची संमुखायामस्यां सिंहासन द्वयम् । .. . जिनजन्माभिषेकाहँ दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः ॥२३८॥ ...
पश्चिम सन्मुख रही इस शिला पर उत्तर और दक्षिण दिशा में जिनेश्वर भगवान के अभिषेक के योग्य दो सिंहासन है । (२३८) .
शीतोदोत्तर दिग्भाविपक्ष्मादिविजयाष्टके । . संजातोऽहं नौत्तराह सिंहासनेऽभिषिच्यते ॥२३६॥ . शीतोदादक्षिणाभाविवप्रादिविजयाष्टके । ... जातो जिनो दाक्षिणात्य सिंहासनेऽभिषिच्यते ॥२४०॥ ..
उत्तर दिशा के सिंहासन ऊपर शीतोदा नदी के उत्तर में आए पक्ष्मादि आठ विजय में उत्पन्न होने वाले जिनेश्वर भगवन्त का अभिषेक करने में आता है । और दक्षिण दिशा के सिंहासन ऊपर शीतोदा के दक्षिण दिशा में आए वप्रादि विजय में जन्म लेने वाले जिनेश्वर भगवन्त का अभिषेक करने में आता है । (२३६-२४०)
उदीच्यां मेरूचूलाया उदीच्यान्ते वनस्य च । रक्त स्वर्णमयी रक्तकंबला वर्तते शिला ॥२४१॥
चौथी रत्न कम्बला नामक शिला है, वह मेरू पर्वत की चूलिका के उत्तर में वन के उत्तरी किनारे में आई है, और यह भी लाल स्वर्णमय है । (२४१)
दक्षिणोत्तरविस्तीर्णा सा पूर्वपश्चिमायता । उदग् रूज्वी चूलिकातो वक्रा तथोत्तरामुखी ॥२४२॥
यह शिला उत्तर दक्षिण में चौड़ी और पूर्व पश्चिम दिशा में लम्बी है, वह उत्तर सन्मुख आई है, और उत्तर दिशा में सीधी तथा चूलिका की ओर टेडी है । (२४२)
अस्यां सिंहासनं मध्ये मणिरल मनोहरम् । एरावत क्षेत्रजातो जिनस्तत्राभिषिच्यते ॥२४३॥