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________________ (३६१) यह शिला उत्तर दक्षिण में चौड़ी और पूर्व पश्चिम में लम्बी होती है। यह दक्षिण दिशा में सरल सीधी है, और चूलिका की ओर वक्र-टेढ़ी है । (२३१) उपर्यस्या मध्यभागे सिंहासानमनुत्तरम् । सुरेन्द्रैस्तत्र भरतजातो जिनोऽभिषिच्यते ॥२३२॥ । इसके ऊपर मध्यभाग में उत्तम सिंहासन है, उस सिंहासन ऊपर इन्द्र महाराज भरत क्षेत्र में जन्म लेने वाले जिनेश्वर प्रभु का अभिषेक करते हैं । (२३२) अमुष्या दक्षिणा मुख्याः सम्मुखं भरतं यतः । ततस्तत्रत्यसार्वस्य युक्तमत्राभिषेचनम् ॥२३३॥ इस शिला के संन्मुख दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र आता है, और इससे वहां जन्म लेने वाले श्री जिनेश्वर भगवान का वहां जन्म अभिषेक होता है । (२३३) शेषं तु मानसंस्थानसोपानवेदिकादिकम् । सर्वासामपि विज्ञेयमविशेषेण पाण्डुवत् ॥२३४॥ इस शिला सम्बन्धी आकृति, परिमाण, सौपान तथा वेदिका आदि शेष सर्व पांडुक शिला के समान जान लेना । (२३४) वर्णतश्चोक्तरूपे द्वे कु मुदोदरसोदरे । वक्ष्यमाणे पुनः कोक नंदविद्रुमबन्धुरे ॥२३५॥ उपरोक्त उभय (दोनो) शिलाओं का वर्णन कुमुद के गर्भ समान है। और जो अब वर्णन करेंगे, उन दोनों शिला का वर्ण माणिक्य तथा प्रवाल समान है । (२३५) · . ... ___ "अयं तावत् जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वृत्यभिप्रायः । बृहत्क्षेत्र समास सूत्र वृतौ तु सर्वाः श्वेत सुवर्ण मय्य उक्ता इति ज्ञेयम् ॥" ___ 'यह बात जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की टीका के अनुसार कही है । वृहत् क्षेत्र समास की टीका में तो सर्व शिलाएं श्वेत स्वर्णमय है।' . वन पश्चिम पर्यन्ते शिला रक्त शिलाभिधा । प्रतीच्यां मेरुचूलायाः तपनीयमयी मता ॥२३६॥ तीसरी रक्त शिला नाम की शिला है, वह वन के पश्चिम छेडे पर मेरू पर्वत की पश्चिम में आई है, और रक्त स्वर्णमय है, ऐसा कहा है । (२३६)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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