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________________ । (३६०) अयं भावः - शिलायाः संमुखं ह्यस्याः पूर्व स्यां दिशिवर्तते । क्षेत्र पूर्व विदेहाख्यं विजयास्तत्र षोडश ॥२२॥ उत्कर्षतोऽपि तत्र द्वौ जायेते युगपग्जिनौ । तत्र शीतोत्तराभावि विजयाष्टकजो जिनः ॥२२६॥ सिंहासने सुराधीशैरौत्तराहेऽभिषिच्यते । दाक्षिणात्ये दाक्षिणात्य विजयाष्टकजो जिनः ॥२२७॥ ... इसका विस्तारपूर्वक भावार्थ इस तरह है - इस शिला के सन्मुख पूर्व दिशा में पूर्व विदेह नाम का क्षेत्र है, उसमें सोलह विजय है । वहां एक साथ में अधिक से अधिक दो जिनेश्वर भगवन्त होते हैं । उसमें से शीता नदी के उत्तर में रहे आठ विजय में हए जिनेश्वर का इन्द्र उत्तर दिशा के सिंहासन पर अंभिषेक करता है, और दक्षिण दिशा के आठ विजयों में उत्पन्न हुए जिनेश्वर भगवन्त को दक्षिण दिशा के सिंहासन पर अभिषेक करते है। (२२५ से २२७) एवं भाव्यं पश्चिमायामपि सिंहासन द्वयम् । । प्रत्यक् विदेहार्हद्योग्यं दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः ॥२२८॥ इसी तरह पश्चिम दिशा की शिला ऊपर भी दो सिंहासन है, वह पश्चिम विदेह में उत्तर और दक्षिण में आए आठ-आठ विजयों में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकर भगवन्त के लिए है । (२२८) , तदेकैकं दाक्षिणात्योदीच्ययोः शिलयोः किल । यभारतखतयोरेकै कस्याह तो जनिः ॥२२॥ उत्तर तथा दक्षिण दिशा की शिला पर एक-एक सिंहासन है । क्योंकि भरत क्षेत्र में तथा ऐरवत क्षेत्र में एक-एक तीर्थंकर परमात्मा का जन्म होता है । (२२६) वनस्याथो दाक्षिणात्य पर्यन्ते पाण्डु कंबला । दक्षिणस्यां दिशि मेरू चूलिकायाः प्रतिष्ठिता ॥२३०॥ जो पांडुक बला नाम की दूसरी शिला कही है, वह इस वन के दक्षिण के अन्तिम विभाग, मेरू की चूलिका से दक्षिण दिशा में है । (२३०) दक्षिणोत्तर विस्तीर्णा प्राक्पश्चिमायता च सा । ऋजुतास्या दक्षिणस्यां वक्रता चूलिका दिशि ॥२३१॥ .
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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