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(३५६) अत्यन्त कमनीयायामस्यां वृन्दारकवजाः । आसीनाश्च शयानाश्च विन्दन्ति परमा मुदम् ॥२१८॥
ये अत्यन्त मनोहर होने से इस शिला पर देवता अत्यन्त हर्षपूर्वक सोते है, बैठते हैं और वंदन करते हैं । (२१८)
वेदिकावनखंडाभ्यां समन्तादियमावृता । कांचीदामनीलपरिधानाभ्यामिव कामिनी ॥२१६॥
सर्वत: वेदिका तथा वनखंडे से घेराव वाली यह शिला मानो सुवर्ण मेखला और हरे वस्त्रों में सज्जित बनी स्त्री के समान शोभायमान है । (२१६)
दक्षिणस्यामुदीच्यां त तस्यां सिंहासने स्थिते । धनुः पंचशत्यासायामे तदर्द्धमेदुरे ॥२२०॥
उस शिला के ऊपर दक्षिण और उत्तर में पांच सौ धनुष्य लम्बे-चौड़े और अढाई सौ धनुष्य मोटे दो सिंहासन हैं । (२२०)
ज्ञेयो ग्रन्थान्तरात् सिंहासनयोरिह वर्णकः ।
अनावृतस्थलस्थानादेषां चन्द्रोदयं बिना ॥२२१॥
इस स्थान पर चन्द्रोदय नहीं हो फिर भी ये सिंहासन उसके स्थान पर शोभायमान होते हैं । इनका विशेष वर्णन अन्य ग्रन्थों से जान लेना चाहिये । (२११)
तुल्यात्वादनयोासायामाभ्यां चतुरस्रता । . चतुरस्रपीठ बन्धरूपे ज्ञेयं इमे ततः ॥२२२॥ .
लम्बाई और चौड़ाई एक समान होने से वह चौकोर (चौखंडा) है और वे सम चोरस पीठ बंध समान तथा खुले होने से चंदोवा (चांदनी) नहीं होती। (२२२) ' औत्तराहे तत्र सिंहासने देवाश्चतुर्विधाः ।
अभिषिंचन्ति कच्छादि विजयाष्टक तीर्थपान् ॥२२३॥
इन दो में से जो उत्तर दिशा का है, उसके ऊपर चार प्रकार के देव कच्छ, आठ विजय में हुए तीर्थंकर, भगवन्त का अभिषेक करते हैं । (२२३)
सिंहासने दाक्षिणातये विजयेषु किलाष्ट सु। · वत्सादिकेषु संजातान् स्नपयन्ति जिनेश्वरान् ॥२२४॥ . और जो दक्षिण दिशा का सिंहासन है, उसके ऊपर वत्स आदि आठ विजय में होने वाले तीर्थंकर भगवन्तों का अभिषेक करने में आता है । (२२४)