________________
(३५८)
"चाददाक्षणायता ।
इन चार में जो प्रथम पाण्डु शिला है, वह अर्जुन स्वर्णमय है । वह मेरू की चूलिका से पूर्व में और वन के पूर्व के आखिर में आयी है । (२११) ..
सा पूर्वापर विस्तीणां तथोदग्दक्षिणायता । आयामतो योजनानां शतानि पंच कीर्तिता ॥२१२॥ शतान्यर्द्ध तृतीयानि मध्ये विष्कम्भतो मता । अर्ध चन्द्रा कृतेस्तस्या मध्ये परम विस्तृतिः ॥२१३॥ ... पूर्वा परः शरत्वेन व्यासोऽस्याः परमो बुधैः । जीवात्वेन च परमायामस्तु दक्षिणोत्तरः ॥२१४॥ ....
वह पूर्व-पश्चिम में चौड़ी और उत्तर-दक्षिण में लम्बी है । इसकी लम्बाई पांच सौ योजन है, इसकी चौड़ाई मध्य भाग में अढाई सौ योजन है, क्योंकि यह अर्धचन्द्राकार की है, अर्थात् मध्यभाग में उत्कृष्ट चौड़ाई होती है । यह चौड़ाई पूर्व पश्चिम शर रूप में उत्कृष्ट रूप हैं, दोनों कोने में अंगूल का असंख्यातवां भाग है, इसकी लम्बाई जीवा रूप में उत्तर-दक्षिण तरफ उत्कृष्ट रूप में है । ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं । (२१२ से २१४)
परिक्षेपो धनुःपृष्टतया भाव्यो यथोचितः । तत्तत्करणरीत्या वा समानेयं शरादिकम् ॥२१॥
इसका घेरावा धनुः पृष्ट रूप में यथा योग्य रूप में समझ लेना चाहिए अथवा इसका शरादि (शर जीवा और धनुः पृष्ट) उस-उस करण युक्ति द्वारा नेकाल देना चाहिए । (२१५) .
चतुर्योजनपिण्डायामस्यां भाति चतुर्दिशम् । तोरणालंकृतं कर्म सौपानानां त्रयं त्रयम् ॥२१६॥
यह शिला चार योजन मोटी है, और इसके चारों दिशाओं में तोरण से शोभायमान है तथा वहां तीन-तीन सोपान है । (२१६) ..
अधिज्यचापाकारायाः वक्रता चूलिकादिशि । ऋजुता स्वस्वदिक्क्षेत्राभिमुखास्या:विभाव्यताम् ॥२१७॥
उसकी आकृति रस्सी चढ़ी धनुष्य के समान है, यह चूलिका की दिशा में वक्र है और अपनी-अपनी दिशा के क्षेत्र सन्मुख सरल है । (२१७)