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त्रिसहस्त्री योजनानां द्वाषष्टयां संयुक्त शतम् ।
विशेषाभ्यधिकं किंचित् परिक्षेपोऽस्य वर्णितः ॥२०॥ . पूर्वोक्त तीन वन जैसे मेरूपर्वत को घेराव कर रहे हैं, वैसे यह चौथा पंडक वन मेरू की चूलिका को घेराव कर रहा है, इसका घेराव तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक कहा है । (१६६-२००)
अस्मिन् मेरू चूलिकायाः पंचाशद्योजनोत्तरम् । . सिद्धायतनमेकैकं प्राग्वत् दिशां चतुष्टये ॥२०१॥ विदिक्षु पुनरेकैकः प्रासादो वापिकावृतः । : नामान्यासांवापिकानामैशान्यादिविदिक्क्रमात् ॥२०२॥ . ...
इस वन में मेरू की चूलिका से पचास योजन के दूरी पर पूर्व के समान चार दिशा में एक-एक सिद्ध मंदिर है, और चार विदिशा (कोने) में वावडियों से युक्त. एक-एक प्रासाद है । इन वावड़ियों के नाम ईशान आदि विदिशाओं के अनुक्रम से इस प्रकार है :- (२०१-२०२) . . .
पुंड्रा पुंडप्रभा चैव सुरक्ताख्या तथापरा । रक्तावतीति चैशान प्रासादे वापिका मताः ॥२०३॥
ईशान कोण के प्रासाद के चारों तरफ पुंड्रा, पुंड्र प्रभा, सुरकता तथा रक्तावती नाम की वावड़ियां है । (२०३) . ..
क्षीररसा चेक्षुरसा तथामृतरसाभिधा । वारूणीति किलाग्नेय प्रासादे वापिकाः स्मृताः ॥२०४॥
अग्नि कोण के प्रासाद की चारों तरफ क्षीर रसा, इक्षुरसा, अमृत रसा, तथा वारूणी नाम की वावड़ियां है । (२०४) .
शंखोत्तरा तथा शंखा शंखावर्ता बलाहका। प्रासादे नैर्ऋती संस्थे वापिकाः परिकीर्तिताः ॥२०॥
नैऋत्य कोने में रहे प्रासाद के चारो तरफ शंखोत्तरा, शंखा, शंखावा तथा बलाहका नाम की वावड़िया हैं । (२०५)
पुष्योत्तरा पुष्पवती सुपुष्पा पुष्पमालिनी । वायव्य कोणेवाप्यः स्युः सर्वाः पूर्वादितः क्रमात् ॥२०६॥ और वायव्य कोने में रहे प्रासाद के चारों तरफ पूर्वादि दिशा के अनुक्रम से