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________________ (३५५) अग्नि कोने में और नैऋत्य कोने में सौधर्मेन्द्र के दो प्रासाद है, और ईशान तथा वायव्य कोने में ईशानेन्द्र के दो प्रासाद है । (१६२) एव वनं सौमनसं लेशतो वर्णितं मया । वर्णयामि वनमथ पाण्डकं शिखरस्थितम् ॥१६॥. इस तरह मैंने सौमनस वन का अल्पमात्र वर्णन किया है, अब मेरु पर्वत के शिखर पर रहे पांडक वन का वर्णन करता हूँ । (१६३) अतीत्योर्ध्वं सौमनसवनस्य समभूतलात् । योजनानां सहस्राणि षट त्रिंशतमुपर्यथ ॥१६४॥ प्रज्ञप्तपण्डक वनमनेक सुरसेवितम् । चारणश्रमणश्रेणि श्रित कल्पद्रुमाश्रयम् ॥१६॥ युग्मं ॥ . सौमनस वन के समभूतल से ऊपर चढ़ते छत्तीस हजार योजन पूर्ण होने के बाद, अनेक देवों से सेवित और चारण मुनियों का विश्राम स्थान रूप, कल्प वृक्षों वाला पंडक वन आया है । (१६४-१६५) . चतुर्नवत्या संयुक्ता योजनानां चतुःशती । वनस्यास्य चक्रवालविष्कम्भो वर्णितो जिनैः ॥६६॥ उस वन की चारों तरफ की चौड़ाई चार सौ चौरानवे योजन की है। ऐसा — श्री जिनेश्वर भगवन्त ने वर्णन किया है । (१६६) उपपत्तिश्चात्र मेरूमौलेः सहस्र विस्तृतात् । शोधयेत् चूलिकामूलव्यासं द्वादशयोजनीम् ॥१६७॥ अवशिष्टेऽर्कीकृते च यथोक्तमुपपद्यते । .. . मानमस्य मरकत मणि गैवेयकाकृतेः ॥१६८॥ युग्मं ॥ - उसकी जानकारी इस प्रकार है - मेरु पर्वत के शिखर का विस्तार एक हजार योजन है। इसमें से चूलिका के मूल की चौड़ाई जो बारह योजन की है, उसे निकाल देने से नौ सौ अठासी योजन शेष रहते हैं, उसे आधा करने से चार सौ चौरानवे योजन होता है, यह मरकत रत्न का ग्रैवेयक की आकृति वाला इस वन का प्रमाण है । (१६७-१६८) , यथा मेरूं परिक्षिप्य स्थिता पूर्व वनत्रयी । परिक्षिप्य स्थितमिह तथेदं मेरूचूलिकाम् ॥१६॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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