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________________ (३५३) योजनानां सहस्राणि चत्वारि द्वे शते अपि । द्विसप्तयधिके भागा अष्टावेकादशोद्भवाः ॥१७७॥ वहिर्वनात् गिरेवा॒सः एष पूर्वापरान्तयोः । दक्षिणोत्तरयोर्वापि तत्रोपपत्तिरूच्यते ॥१७८॥ युग्मं । इस वन के बाहर मेरू पर्वत का पूर्व पश्चिम अथवा उत्तर दक्षिण विस्तार, व्यास चार हजार दो सौ बहत्तर पूर्णांक आठ ग्यारहांश (४२७२८/११) योजन का कहलाता है । (१७७-१७८) मेरूच्छ्यस्यातीतानि भुवः सौमनसावधि । त्रिषष्टिर्योजनसहस्राणि रूद्रैर्भजेत् बुधः ॥१७६॥ शतानि सप्तपंचाशत् सप्तविंशानि तत्र च । लब्धानि योजनान्यंशाः त्रयश्चैकादशोद्भवाः ॥१०॥ अस्मिन् राशौ भूमिगतात् मेरूव्यासात् विशोधिते । मानं यथोक्तं जायेत बाह्यायाः गिरिविस्तृतेः ॥१८१॥ . वह इस तरह से :- पृथ्वी से सौमनस वन तक मेरू की ऊंचाई तिरसठ हजार योजन है, इसे ग्यारह से भाग देना ६३०००:११ अर्थात भाग देने में पांच हजार सात सौं सताईस पूर्णांक तीन ग्यारहांश ५७२७ ३/११ योजन आता है । इस संख्या को पृथ्वी पर मेरु पर्वत की चौड़ाई, जो दस हजार योजन है, उसमें से निकाल देने से जो आती है, वह बाहर का पर्वत का विस्तार आता है । (१०,०००-५७२७ ३/ ११ = ४२७२.८/११) । (१७६ से १८१) व्यासो वनस्योभयतः पंच पंच शतात्मकः । बाह्य व्यासात्तसहस्त्रे शोधिते शेषमान्तरः ॥१८२॥ सच अयम्-योजनाना सहस्राणि त्रीणि किंच शतद्वयम् । द्विसप्तत्यधिकं भागाः अष्ट चैकादशोद्भवाः ॥१३॥ इस वन की दोनों तरफ की चौड़ाई पांच सौ-पांच सौ योजन की है, कुल मिलाकर एक हजार होती है, उसे बाहर की चौड़ाई में से निकाल देने से जो संख्या आती है, वह अन्दर की चौड़ाई समझना अर्थात् ४२७२८/११-१००० = ३२७२८/ ११ अन्दर की चौड़ाई है । (१८२-१८३) तथा - गिरेबाबपरिक्षेपः त्रयोदश सहस्रकाः । एकादशाः शता:पंच षट् चैकादशजा लवाः ॥१८४॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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