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(३५१) "आह॥नन्दनवनेबलकूटम्।नन्दनवनंचपंचयोजनशतविस्तीर्णायाम् मेरोः प्रथम मेखलायां।ततः कथंतत्रमाति? उच्यतेबलकूटेनपंचयोजनशतानि नन्दनवन सत्कानिरूद्धानिपंचयोजनशतानि पुनः मेरो बहिः आकाशे॥ ततो न कश्चिद्दोषः ॥"
"यहां प्रश्न करते हैं कि - नंदनवन में बलकूट है, इस तरह आप कहते हो परन्तु नंदनवन तो मेरु पर्वत की पांच सौ योजन विस्तार वाली प्रथम मेखला में है, तो इसमेंएक हजार योजन विस्तार वाला बलकूट का किस तरह समावेश हो सकता
है ?"
इसका उत्तर देते हैं - बलकूट नन्दनवन के पांच सौ योजन रोक कर खड़ा है और दूसरे पांच सौ योजन तो.मेरु से बाहर अधर के आकाश में है, इसलिए शंका का प्रश्न नहीं रहता।
उक्तं च -
नंदनवण रूभित्ता पंच सए जो अणाइं नीस रिओ। __ आया से पंच सएं रूभित्ता ठाइ बलकूडो ॥१६८॥
. . इति बृहत् क्षेत्र समास वृत्तौ । . वृहत् क्षेत्र समास की वृत्ति में भी कहा है कि - नंदनवन के पांच सौ योजन रोक कर बलकूट पर्वत खड़ा है, शेष आकाश में पांच सौ योजन रूके हुए हैं। (१६८) . . . . .
"जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वृत्तौ तु मेरुतः पंचाश द्योजना तिकमे ईशान कोणे ऐशान प्रासादः ततः अपिईशान कोणे बलकूट मित्युक्तम्॥तदभिप्रायं न विद्मः ॥
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की टीका के अन्दर तो इस तरह कहा है कि 'मेरु पर्वत से ईशान कोने में पचास योजन जाते ईशान की ओर प्रसाद है, और इससे भी ईशान कोणे में 'बलकूट' आया है । यह बात समझ में नहीं आती।"
माल्यवदगिरिसम्बन्थिहिरस्सहाख्य कूटवत् । . सर्वात्मनेदं विज्ञेयं व्यासायामोच्चतादिभिः ॥१६६॥
इस बलकूट की लम्बाई-चौड़ाई ऊंचाई आदि सर्व माल्यवान पर्वत के हरिस्सह नामक शिखर के अनुसार जान लेना । (१६६)