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ये आठ देवियां ऊर्ध्व लोक की दिक्कुमारियां है, और वे जिनेश्वर भगवान के जन्म समय में सुगन्धी जल का छिड़काव और पुष्प वृष्टि करती हैं । (१६२)
भद्रशालवनकूटतुल्यत्वेन भवन्त्यमी । मूले पंच योजनानां शतान्यायतविस्तृताः ॥१६३॥
आठ शिखरों का वर्णन हो गया है । यह भद्रशाल वन के शिखर समान मूल में पांच सौ योजन लम्बा-चौड़ा है। . . ...
वनेऽपि पंचशतिके पंचाशद्योजनोत्तरम् । स्थितेरेषां स्थितिः किंचिदाकाशे बलकूटवत् १६४॥ . .
यह पांच सौ योजन के वन में पचास योजन के बाद में कहां है । अतः उसका कुछ भाग पचास योजन 'बलकूट' के समान आकांश में स्थिर रहा हुआ है । (१६४)
अत्रैव नन्दनवने सुधाशनधराधरात् । . ऐशान्यां विदिशि प्रोक्तं बलकूटं जिनेश्वरैः ॥१६५॥
आखिर नौवा 'बलकूट' शिखर है, वह नंदन वन में ही मेरु पर्वत के ईशान कोण में आया है । इस तरह श्री जिनेश्वर भगवंत ने कहा है । (१६५)
"तथोक्तं - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्रे. । मंदर स्सणं पव्वयस्स उत्तर पुरच्छिमेणं एत्थ णं णंदण वणे बल कुटे णामं कूडे पण्णत्ते इत्यादि ॥"
इस विषय में जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में कहा है कि. मंदराचल पर्वत की उत्तर पूर्व में अर्थात् ईशान कोने के अन्दर नंदनवन में बलकूट नाम का कूटशिखर आया है । इत्यादि -
विदिशाऽपि विशालाः स्युः महतो वस्तुनः किल।
तद् घटेतावकाशेऽत्र प्रासाद बलकूटयोः ॥१६६॥
महान.पदार्थों की विदिशा ये भी महान - विशाल होने से यहां प्रासाद और बलकूट दोनों का अवकाश घटता है । (१६६) .
अर्धेन नन्दनवने कूटमेतदवस्थितम् ।
अपरार्धेन चाकाशे तदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥१६७॥
यह नौवां बलकूट आधा नंदनवन में रहा है, और आधा आकाश में स्थिर रहा है, इस तरह पूर्वाचार्य ने कहा है । (१६७)