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(३४६)
स्युश्चतस्त्रश्चतस्त्रस्ताः पूर्वादिदिगनुक्रमात् । स्थिताः परीत्य परितः प्रासादास्तान् विदिग्गतान् ॥४२॥
ये चार-चार वावड़ियां विदिशाओं में रहे प्रासादों को घेरकर पूर्वादि दिशा में अनुक्रम से रही है । (१४२)
आग्नेय्यामथ नैऋत्यां प्रासादौ शकभर्तृको । वायव्यामथ चैशान्यां तावीशानसुरेशितुः ॥१४३॥
उसमें अग्निकोण और नैऋत्य कोने में सौधर्मेन्द्र का प्रासाद है, और वायव्य तथा ईशान कोण में ईशानेन्द्र का प्रासाद है । (१४३).
कूटा नव भवन्त्यत्र नन्दनाख्यं च मन्दरम् । निषधाख्यं च हिमवत्कूटं रजतनामकम् ॥१४४॥ . रूचकं सागरचित्तं वज्रकटं बलाभिधम । पंचाशता योजनैः स्युर्मेरोरेतानि नन्दने ॥१४५।। युग्मं ॥
यहां पर नौ शिखर आए हैं वह इस तरह है : १- नन्दन, २- मन्दर, ३- निषध, ४- हिमवंत, ५- रजत, ६- रूचक,७- सागर चित्र,८- वज्र और ६- बल । ये सब शिखर इस नन्दन वन में और मेरुपर्वत से पचास-पचास योजन के अन्तर - फासले पर है । (१४४-१४५)
पौरस्त्य सिद्धायतनैशानी प्रासादयोः किल ।
अन्तरे नन्दनं कूटं तत्र मेघंकरा सुरी ॥१४६॥
प्रथम नन्दन नामक शिखर है, वह पूर्व तरफ के सिद्धायतन और ईशान कोने में आए प्रासाद के बीच में है, और वहां मेघकरा नाम की देवी का निवास स्थान है। (१४६)
जम्बूद्वीपेऽपरत्रास्या राजधानी सुमेरूतः । . ऐशान्यां विदिशि प्रोक्ता यथार्ह विजयादिवत् १४७॥
इस देवी की राजधानी दूसरे जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से ईशान कोने में आई है, और वह सर्व प्रकार से विजय देव की राजधनी के समान जानना । (१४७)
पौरस्त्य सिद्धायतनाग्नेयी प्रासाद योः किल । अन्तरे मन्दरं कूटं तत्र मेघवती सुरी ॥१४८॥