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लब्धानि पंच चत्वारिंशद्योजनानि पंचभिः । एकादशांशैर्युक्तानि त्यज्यन्ते मूल विस्तृतेः ॥१२८॥ दशसहस्ररूपायास्तदैतदवशिष्यते । शतानि नवनवतिश्चतुष्पंचाशदेव च ॥२६॥ एकादशांशा षट् बाह्यो व्यासोऽयं तत्र भूभृतः । दक्षिणोत्तरयोः पूर्वापरयो वनान्तयोः ॥१३०॥ कलापकं । एक त्रिंशद्योजनानां सहस्राणि चतुःशती । . . . एकोनाशीतिरधिका परिक्षेपोऽत्र बाह्यतः ॥१३१॥
पर्वत पर चढ़ते प्रत्येक योजन में एक ग्यारहांश योजन जितना चौड़ाई में घटता जाता है । इस हिसाब से पांच सौ योजन बढ़ते पैंतालीस पूर्णांक पांच ग्यारहांश ४५ -५/११ योजन मूल की चौड़ाई में कम हो गया । अतः मूल-चौड़ाई दस हजार योजन की है, उसमें से यह घटा हुआ निकाल देने पर नौ हजार नौ सौ चौवन पूर्णांक छ: ग्यारहांश (१०,०००-४५५/११ =६६५४ ६/११) योजन आता है, यह मेरूंपर्वत की बाह्य चौड़ाई होती है, और वह इस वन की दक्षिण से उत्तर तक की तथा पूर्व से पश्चिम तक की समझना । इस कारण से बाहर का घेराव इकतीस हजार चार सौ उनासी (३१४७६) योजन होता है । (१२७-१३१)
बाह्ये च गिरि विष्कम्भे सहस्र योजनोनिते । स्यादन्तर्गिरिविष्कम्भः स चायं परिभाव्यते ॥१३२॥ सहस्राणि योजनानामष्टौं नव शतानि च । चतुः पंचाशत्तथांशाः षडेकादशनिर्मिताः ॥१३३॥ सहस्रा योजनान्यष्टाविंशतिस्त्रिशती तथा । षोडशाढया तथा भाग अष्टावेका दशोत्थिताः ॥॥३४॥ अन्तः परिरयोऽयं च भवेदस्मिन् बने गिरेः । वनमेतदथो पद्मवेदिका वनवेष्टितम् ॥१३५॥ एवं चत्वार्यपि वनानि ज्ञेयानि ॥
मेरू पर्वत की बाहर चौड़ाई में से एक हजार योजन निकाल देने पर इसके अन्दर की चौड़ाई आती है । अर्थात् वह आठ हजार नौ सौ चौवन पूर्णांक छः ग्यारहांश (८६५४ ६/११) योजन आता है, इस आधार पर इसका घेराव निकाले तो वह अट्ठाईस हजार तीन सौ सोलह पूर्णांक आठ ग्यारहांश (२८३१६ ८/११)