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'यह अभिप्राय जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र का है । परन्तु सम वायांग सूत्र में तो कहा है कि इसका दूसरा विभाग अड़तीस हजार योजन का है।'
चतुविर्धत्वेनन्वेवमाद्य द्वितीय काण्डयोः । मृत्तिकादि विभागानां न पृथक्काण्डता कथम् ॥७०॥
यहां प्रश्न करते हैं कि प्रथम दूसरे काण्ड के जब चार चार भेद कहे है तो मृत्तिका आदि विभागों के कारण अलग अलग कांड क्यों नहीं कहा ? (७०) अत्रोच्यते - पृथ्व्यादिवस्तुजत्वेऽपि नैयत्येनोक्तकाण्डयोः ।
पृथ्व्यादिरूपभागानाम विवेकात् न काण्डता ॥७१॥ इसका उत्तर देते हैं - वे दोनों कांड पृथ्वी आदि वस्तु के कारण से हुआ है, यह वास्तविक है, फिर भी यह पृथ्वी आदि विभाग अलग न होने के कारण इनके अलग-अलग कांड नहीं कहा है । (७१)
चतुर्भिश्चायममितो वनखण्डैरलंकृतः । दान शील तपो भावैः जैन धर्म इवोन्नतः ॥७२॥
जैसे जैन धर्म में दान, शील, तप और भाव ये चार शोभायमान हो रहे हैं, वैसे ही यह मेरु पर्वत चार वन खंडों से शोभायमान हो रहा है । (७२)
तत्र भूमौ भद्रशालं क्रमात् मेखलयोर्द्वयोः ।
नन्दनं सौमनसं च शिखरे पण्डकं वनम् ॥७३॥ . मेरु पर्वत के चारों तरफ समतल भूमि पर भद्रशाल वन आया है । इसकी दोनो मेखलाओं पर क्रमश: नंदनवन और सौमन वन आए है और ऊपर के विभाग में पंडक वन है । (७३) ...
तत्राद्यं भद्रशालाख्यं मेरोः पश्चिम पूर्वतः । द्वाविंशतिविंशतिः सहस्राण्यायतं मतम् ॥७॥ साढ़े द्वे योजन शते दक्षिणोत्तर विस्तृतम् । . स्थितं मेरूं परिक्षिप्य वलयाकृतिनात्मना ॥७॥
प्रथम भद्र शाल वन मेरू पर्वत के पूर्व पश्चिम में, बाईस-बाईस हजार योजन. लम्बा है, और उत्तर दक्षिण में चौड़ा, अढ़ाई सौ योजन है । उसने मेरू पर्वत को वलयाकार रूप चारों तरफ घेरा हुआ है । (७४-७५)