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अत्रेयमुपपत्तिःपूर्वास्यां पश्चिमायां वा य आयामोऽस्य वर्णितः।। सौऽष्टा विभक्तः सन् विस्तारोऽत्रैक पार्श्वतः ॥७६॥ किंचउदीच्यो दाक्षिणात्यो वा विस्तारोऽस्य वनस्य यः । सौऽष्टाशीत्या ताडितः सन् आयामोऽस्यैक पार्श्वतः ॥७७॥
वह इस प्रकार है - पूर्व की ओर अथवा पश्चिम तरफ के वन की जो लम्बाई कही है, उसके अट्ठाईसवें भाग के समान इसके एक ओर की अर्थात् दक्षिण अथवा उत्तर की ओर चौड़ाई है । उत्तर या दक्षिण की ओर इसकी जो चौड़ाई कही है, इससे अट्ठाईसवे गुणा, इसके पूर्व या पश्चिम की ओर एक तरफ की लम्बाई है । (७६-७७)
भद्र शालवनं चैतत् अष्टधा विहितं किल । शीतोदया शीतया च 'गजदन्ताद्रिं मेरूभिः ॥७८॥
इस भद्र शाल वन के शीता और शीतोदा इन दो नदियों से तथा गज दंत और मेरू पर्वत से आठ विभाग पड़े हुए हैं । (७८) तथाहि - एको भागो मन्दरस्य प्राच्या पश्चिमतः परः।
विद्युत्प्रभ सौमनसमध्येऽपाच्यां तृतीयकः ॥७६॥ . तुर्यश्चोत्तरततो माल्यवद् गन्धमादनान्तरे । भागाः सर्वेऽप्यमी शीता शीतोदाभ्यां द्विधाकृताः ॥८॥
वह इस तरह - १- मेरु पर्वत के पूर्व तरफ २- मेरु पर्वत की पश्चिम तरफ ३- मेरु पर्वत की दक्षिण की ओर, विद्युत्प्रभ तथा सौमनस के बीच, ४- मेरु पर्वत की उत्तर ओर माल्यवान् और गंधमादन के बीच, इस तरह चार विभाग बने। इसमें शीता और शीतोदा नदिया आई है, इसने दो-दो विभाग किए है, इससे सर्व मिलाकर आठ भाग होते हैं । (७६-८०) तचैवम् - उदीच्यांशौ द्विधाचक्रे शीतया प्राक् प्रवृतया ।
प्राची प्रति प्रस्थितया प्राकखण्डोऽपि द्विधाकृतः ८१॥ शीतोदया याम्यखण्डो द्विधोदग्गतया कृतः । द्विधा पश्चिम खण्डोऽपि कृतः प्रत्येक प्रवृत्तयाः ॥२॥