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________________ (३३३) योजनानां सहस्रस्य द्विः भवेत् युगपत् त्रुटिः । कथं एकादश भागहानिः तदुप पधते ॥५८॥ युग्मं ॥ यहां प्रश्न करते है कि - मेरु पर्वत के चारों तरफ पांच-पांच सौ योजन के विस्तार में नन्दन और सौमनस वन होने से, दोनों मेखलाओं पर एक साथ में एक हजार योजन को दो बार घटाया जाय, वहां ग्यारहवें भाग की हानि की बात किस तरह हो सकती है ? (५७-५८) अत्रोच्यते कर्णगत्या समाधेयमिदं बधैः । का कर्णगतिरित्येवं यदि पृच्छसि तत् श्रुणु ॥५६॥ उत्तर - इस बात का ‘कर्णगति' द्वारा समाधान करना चाहिए । यह कर्णगति क्या है वह सुनो :- (५६) कन्दादारम्य शिखरं यावत्तदुभय स्पृशि । दत्तायां दवरिकायां स्थिरहस्तेन धीमता ॥६०॥ अपान्तराले यत् क्वापि कियदाकाशमास्थितम । तत् समग्रं कर्णगत्या मेरोराभाव्यमित्यतः ॥६१॥ तत् प्रकल्प्य मेरूतया प्राहुः गणितकोविदाः । । सर्वत्रैकादशभागपरिहाणिं यथोदिताम् ॥६२॥ विशेषकं ॥ - मूल स्थान से लेकर शिखर तक उन दोनों को स्पर्श करे, इस तरह एक रस्सी मजबूत हाथ से पकड़ कर रखते हुए बीच में कहीं पर कोई खाली (खोखलापन) रहे वह सर्वकर्णगति द्वारा मेरूपर्वत का है, ऐसा विचार करना और, इसी ही कारण से गणित शास्त्रियों ने भी उसे मेरू पर्वत रूप में कल्पना कर सर्वत्र यथोक्त ग्यारहवें भाग को घटाने का कहा है । (६०-६२) "अयं च अर्थः श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण पूज्यैरपि विशेषणवत्यां लवणोदधिधन गणित निरूपणावसरे दृष्टान्त द्वारेण ज्ञापित एव ॥" " श्री जिनभद्र गणि ने भी 'विशेषवती' ग्रन्थ में लवणसमुद्र का घन गणित कथन करते हुए दृष्टान्त द्वारा यही भावार्थ कहा है।" . अतोऽयं मेखलायुग्मा विवक्षया क्रमात्तनुः । मूले च विसतृतः सुष्ढदस्तगोपूच्छसंस्थितः ॥६३॥ और इस तरह होने से ही दोनों मेखलाओं को गिनती में न लें तो, वहां आगे
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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