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(३३१) अतः ऊपर एक रहेगा और नीचे ग्यारह रहेगा, अर्थात् प्रत्येक योजन में एक ग्यारहांश विभाग आता है । (४४)
यद्वा भाग्यः भाजकयोः उभयोः लक्षरूपयोः । राशि: भाज्योंऽशरूपोऽस्तिभाजको योजनात्मकः ॥४५॥ प्रति योजनमेकोंऽशः तत्सुखेनैव लभ्यते । इयं मेरोरूभयतो वृद्धिहानी निरूपिते ॥४६॥
अथवा भाज्य राशि और भाजक राशि इन दोनों में भाज्य राशि अंश रूप है, और भाजक राशि योजन रूप है, इससे प्रति योजन से एक-एक आया । यह एक ग्यारहांश योजन वृद्धिहानी आती है । यह मेरू की दोनों ओर की ज्यादा, कम आती है । (४५-४६)
ज्ञातुमिष्टे वृद्धिहानी तत्र यद्येकपाव॑तः । द्वाविंशतिविभक्तस्य योजनस्यलवस्तदा ॥४७॥
परन्तु यदि एक ही ओर ज्यादा कम जानना चाहते हो, तो वह एक योजन . का बाईसवां भाग है । (४७)
ततः अयं भावः - . . ...'.यावदुत्पत्यते कन्दादंगुलयोजनादिकम् ।
एकादशः तस्य भागो कन्द व्यासात् क्षयं व्रजेत् ॥४८॥
इसका भावार्थ इस तरह से है - मूल स्थान से जितना अंगुल प्रमाण अथवा योजन प्रमाण.ऊंचे चढ़ने से, इसका ग्यारहवां अंश मूल की चौड़ाई से कम होता है। (४८) . ...
तथाहि - एकादश स्वंगुलेषु समुत्क्रान्तेषु मूलतः । ... क्षीयते मूल विष्कम्भात्संपूर्णमेकमंगुलम्॥४६॥ योजनेष्वपि तावत्सु समुद्यातेषु मूलतः । क्षीयते मूल विष्कम्भात् सम्पूर्णमेकयोजनम् ॥५०॥
जैसे कि - मूल स्थान से ग्यारह अंगुल ऊपर चढ़ने पर वहां की चौड़ाई मूल की चौड़ाई से एक अंगुल कम होती है, और मूल से ग्यारह योजन ऊपर चढ़ने पर वहां की चौड़ाई मूल की चौड़ाई से एक योजन घट (कम) जाती है । (४६-५०)