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(३२८)
एवं दश सहस्राणि जातानि धरणी तले । विष्कम्भो मेरु शैलस्य सर्वत्रैवं विभाव्यताम् ॥२६॥ विशेषकं ॥
उदाहरण रूप में ऊपर के विभाग में निन्यानवे हजार योजन से नीचे उतरें, उस विभाग के स्थान की चौड़ाई जानने के लिए निन्यानवे हजार को ग्यारह से भाग देने पर नौ हजार ६६०००११-६००० अंक आता है, उसमें एक हजार मिलाने. पर ६०००+ १००० = १०,००० दस हजार योजन आता है । यह मेरु पर्वत की पृथ्वी तल के पास की चौड़ाई हुई । और इस प्रकार से सर्व स्थान पर से जान लेना चाहिए । (२४-२६)
अथवा प्रकारान्तरेण इदमेव करणम्। मूलाद्यत्र योजनादावुत्पत्य ज्ञातुमिष्यते । ... व्यासः तस्मिन् योजनादौ विभक्ते रूद्रसंख्यया ॥२७॥ . यल्लब्धतन्मूलसत्काद्विस्ताराच्छोधयेत् बुधः । यच्छेषं तन्मित स्तस्यव्यासोऽभीष्ट स्थले यथा ॥२८॥ युग्मं । .
अथवा एक और भी युक्ति है - मूल से ऊपर चढ़तें किसी भी स्थान विभाग का व्यास जानने के लिए जितना ऊपर चढ़ते हैं, इसे ग्यारह द्वारा भाग देने से जो अंक आता है इसे मूल की चौड़ाई में से निकाले पर जो शेष रहे वह उस स्थान या विभाग की चौडाई जानना चाहिए । (२७-२८)
कंदात्सहस्रमुत्पत्य व्यासं जिज्ञाससे यदि । सहस्र मेका दशभिः भज लब्धमिदं पुनः ॥२६॥ नवति योजना न्यंशा दश चैकादशात्मकाः । कन्द व्यासाच्छोधयेदं ततः शेषाणि यानि तु ॥३०॥ योजनां सहस्राणि दशैतावान्महीतले । विष्कम्भः स्वर्ण शैलस्य सर्व त्रैवं विभाव्यताम् ॥३१॥ विशेषकं ॥
जैसे कि मूल स्थान से एक हजार योजन ऊंचे विभाग की चौडाई जाननी हो तो, इन हजार को ग्यारह से भाग देना चाहिए । अर्थात् नब्बे पूर्णांक दस ग्यारहांश १००० -११ = ६० -१०/११ योजन आता है और मूल की चौड़ाई योज़न में से निकालने पर १००६० - १०/११ दस हजार रहेगा, इतने योजन मेरु पर्वत के उस विभाग की चौडाई समझना । इसी तरह सर्वत्र समझ लेना चाहिए । (२६ ३१)