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(३२७)
इसकी परिधि मूल में इकतीस हजार नव सौ दस पूर्णांक और तीन ग्यारहांश ३१६१० - ३/११ योजन है । (१८)
योजनानां सहस्राणि दशास्य समभूतले । सहस्रमेकं शिखरे व्यास: चूलोपलक्षिते ॥१६॥
समभूतल में इसकी चौडाई दस हजार योजन है, और जो इसकी चूलिका अर्थात् शिखर है, उसकी चौड़ाई एक हजार योजन है । (१६)
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एकत्रिंशत्सहस्त्राणि योजनानां शतानि षट् । त्रयोविंशत्यधिकानि परिधिः समभूतले ॥२०॥
इसका घेराव समभूतल में इकतीस हजार, छः सौ तेईस (३१६२३) योजन है। (२०)
ऊर्ध्वं च परिधिस्तस्य योजनानां भवेत् गिरेः ।
सहस्राणि त्रीणि चैकं द्वाषष्टयाभ्यधिकं शतम् ॥२१॥
इसके ऊपर घेरावा तीन हजार एक सौ बासठ (३१६२) योजन होता है
(२१)
अथ सर्वत्र विष्कम्भ ज्ञानाय करणम् ।
सहस्र योजन व्यासान्मेरोरू परिभागतः ।
यत्रोतीर्थ योजनादौ विष्कम्भो ज्ञातुमिष्यते ॥२२॥
तद्योजन प्रभृत्येकादशभिः प्रविभज्यते । लब्धे सहस्त्रसंयुक्ते व्यासोऽस्य वांछितास्पदे ॥ २३॥ युग्मं ।
सर्व स्थान में चौड़ाई जानने के लिए इस तरह युक्ति है :- मेरु पर्वत के एक हज़ार योजन के घेराव वाले, ऊपर के विभाग से नीचे के किसी भी स्थान पर चौड़ाई के योजन आदि जानना हो तो, उतना नीचे उतरने पर उस संख्या को ग्यारह द्वारा भाग देने पर जो संख्या आती है, उसमें एक हजार मिलाने पर जो अन्तर आता . है, वह उस स्थान की चौड़ाई जानना । (२२-२३)
यथाधो नवनवति सहस्त्राण्युर्ध्व भागतः । अतीत्यात्र प्रदेशे चेद्विष्कम्भं ज्ञातुमिच्छसि ॥२४॥ तदेतैर्न वनवतिसहस्रैः रूद्र भाजितैः 1 सहस्रान्नव संप्राप्तान् सहस्र सहितान् कुरु ॥२५॥