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(३२३)
स्वरूपमुत्तर कुस्तृतिश्चां यदीरितम् ।
आयुः शरीर मानादि तदत्राप्यनुर्वते ते ॥४२०॥
इस देव कुरु के मनुष्य और तिर्यंचों का आयुष्य, शरीरमान आदि स्वरूप उत्तर कुरु के मनुष्य आदि का जो कह गये हैं, उसी तरह समझ लेना । (४२०)
करवो द्विविधाः समाइमाः सुषमाभिः सुतमां परस्परम् । मिलताः कलहाय मेरूणा प्रविभक्ता इव मध्य वर्तिना ॥४२१॥
कुरुक्षेत्र के दोनों विभाग में सुषमा आरा चल रहा है । अर्थात् परस्पर समानता होने के कारण दोनों मानो कलह (झगड़ा) करने के लिए आमने सामने मिले हो और मध्यस्थ रूप मेरु ने मध्यस्थ बन कर इनको अलग कर दिए हों, इस तरह लगता है । (४२१)
विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगतत्व प्रदीपोपमे, सर्गः सप्तदशः समाप्ति गम द्विद्वत्प्रमोदप्रदः ॥४२२॥
- ॥इति सप्तदशः सर्गः ॥
जिनकी कीर्ति सुनकर के अखिल जगत आश्चर्य में लीन हो गया है, ऐसे श्री कीर्ति विजय जी उपाध्याय के अन्तेवासी, माता जी राजश्री जी तथा पिता श्री तेजपाल के सुपुत्र विनय विजय उपाध्याय ने जगत के निश्चित तत्व को प्रकट करने में दीपक समान इस काव्य ग्रन्थ की रचना की है, वह विद्वान जन को प्रमोद देने वाला सत्रहवां सर्ग समाप्त हुआ । (४२२)
-सत्रहवां सर्ग समाप्त -