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अठारहवां सर्ग पार्श्व शंखेश्वरोतंसं नत्वा तत्वावबोधदम् । स्वरूपं स्वर्णशैलस्य यथाश्रुतमथोच्यते ॥१॥
अब तात्विक बोध को देने वाले, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान को - नमस्कार करके, मेरू पर्वत का शास्त्र कथन अनुसार स्वरूप कहता हूँ। (१).
उत्तरस्यां स्थितो देवकुरुभ्यः कनकाचलः । .. उत्तराभ्यः कुरुभ्यश्च दक्षिणस्यां प्रतिष्ठितः ॥२॥ .. प्रत्यक् पूर्व विदेहेभ्यः प्राक् पश्चिम विदेहतः। .. रत्नप्रभाचक्र नाभिरिव मध्येऽस्त्यवस्थितः ॥३॥
यह मेरू पर्वत देव कुरु की उत्तर में उत्तर कुरु के दक्षिण में पूर्व विदेह की . पश्चिम में और पश्चिम विदेह की पूर्व में मानो रत्नप्रभा रूपी चक्र को धारण किया हो वैसे ठीक (मध्य) बीचोबीच में रहा है । (२-३)
निमित्तहे त्तो वन पर्यायभांडसम्भवे । भ्रमतः कालचक्रस्य भ्रमिदण्ड इवोच्छ्रितः ॥४॥
इस जगत के पर्याय रूपी बर्तन बनाने में निमित्तभूत, जो काल रूपी चक्र घुमाने का दण्डा हो, इस तरह ऊंचा खड़ा है । (४) '
मानदण्ड इवोदस्तो जम्बूद्वीपमीमीषया । तथैव स्थापितो धात्रा मेयं मत्वाभितोल्यकम् ॥५॥
मानो विधाता ने जम्बू द्वीप को मापने की इच्छा से ऊंचा किया हो और फिर मेय वस्तु को तोलने का सोचकर उन्होंने इस तरह खड़ा रखा हो, यह विधाता का मानदण्ड हो इस तरह लगता है । (५)
स्निग्धयोर्वी कृतो धात्रीमात्रा स्वांकेऽति कौतुकात्। . नीलचूलोबाल इव प्रभावलयचोलकः ॥६॥
मानो पृथ्वी रूपी स्नेहीमयी माता ने कौतुक से गोद में खडा रखा हो, वह कान्ति रूपी वस्त्र और श्याम शिखा वाला बालक हो इस तरह लगता है । (६)
चन्द्रार्क ग्रहनक्षत्रतारा वृषभसंतततेः । भ्रमन्त्या मनुजक्षेत्रे मेठिदण्ड इवाहितः ॥७॥