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(३२१) विजय देव के समान समृद्धि वाले इस कंचन गिरि तथा सरोवर के स्वामियों की राजधानी मेरू पर्वत से दक्षिण दिशा में है । (४११)
विचित्र चित्रों निषधात् यावद्दूरे व्यवस्थितौ । विचित्र चित्र शैलाभ्यां तावता निषधो हृदः ॥४१२॥
निषध पर्वत से दूर जितने विचित्र और चित्र पर्वत है, उतने ही विचित्र और चित्र पर्वत से दूर सरोवर है । (४१२) ।
द्वितीयादि हृदानामप्येवमन्योऽन्यमन्तरम् । तुल्यं तथान्तिम हृदक्षेत्रपर्यन्तयोरपि ॥४१३॥
इसके बाद अन्य सर्व सरोवरों का भी इतना ही परस्पर अन्तर है, अन्तिम सरोवर और क्षेत्र तक बीच में भी इतना ही अन्तर है । (४१३)
एता शीतास्पर्द्धयेव शीतोदया द्विधाकृताः । पूर्वा परार्धभावेन सद्देव कुखोऽपि हि ॥४१४॥
इस देव कुरु क्षेत्र को भी शीतोदा नदी ने मानो शीता नदी की स्पर्धा के कारण पूर्वार्द्ध और पश्चिमार्द्ध, इस तरह दो विभाग में बांट दिया है । (४१४) - ... . शीतोदायास्तु यत्प्राच्यां तत्पूर्वार्द्धमिहोच्यते ।
शीतोदायाः प्रतीच्यां यद पराद्धं तदाहितम् ॥४१५॥
जो भाग शीतादा नदी से पूर्व में है, वह पूर्वार्द्ध देवकुरु है और जो भाग इसके पश्चिम में है वह पश्चिम देव कुरु के नाम से प्रसिद्ध है । (४१५) ... तत्रैतासाम परार्द्ध मध्यभागे निरूपितः ।
समानः शाल्यलीवृक्षो जम्बूवृक्षण सर्वथा ॥४१६॥
उस पश्चिमार्द्ध देवकुरु के मध्यभाग में एक शाल्मली नाम का वृक्ष है, वह हर प्रकार से (सर्वथा) जम्बू वृक्ष के समान है । (४१६)
किं चैतच्छाल्मली पीठं ख्यातं रजत निर्मितम् ।
प्रासाद भवनान्तः स्थाः कूटा अप्यत्र राजताः ॥४१७॥ .. परन्तु इस शाल्मली वृक्ष का पीठ चान्दीमय है, उसके प्रासाद, भवन और अन्तः स्थ शिखर भी (रूप्य) चान्दीमय है । (४१७)
शिखरा कृति मत्वेन ख्यातोऽयं कूट शाल्मली। वेणु देवाख्यः सुवर्ण जातीयोऽस्त्य च नायकः ॥४१८॥
शाताद