SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३१८) रहती है। शेष वे वास्तविक रहते हैं। तथा गजदन्त के अधो भवन में प्रत्येक गजदन्त के नीचे उनके दो-दो भवन हैं, और वे ति लोक को छोड़कर असुरादि के भवन आते हैं, वहां रहती है। इनको शास्त्र में अधोलोक में रहने वाली कही है, वह इसी कारण से कहा है। उनका काम श्री जिनेश्वर भगवान के जन्म समय में भूमि शुद्धि करने सम्बन्धी तथा सूतिका गृह सम्बन्धी है । (३६२-३६५) 'यद्यपि उत्तरकुरुवक्षस्कारयोः यथायोगं सिद्धहरिस्सहकूटवर्ज कूटाधिपराज धान्यो यथाक्रमं वायव्यामैशान्यां च यथा प्राग अभिहिताः तथा देव कुरूवक्षस्कारयोः यथा योगं सिद्ध हरिकूट वर्ज कूटाधिपराजधान्यो यथा क्रमं आग्नेय्यां नैर्ऋत्यां च वक्तुमुचिताः तथापि प्रस्तुत सूत्र सम्बन्धि यावत् आदर्श पूज्य श्री मलयगिरि कृत क्षेत्र विचार वृत्तौ च तथा दर्शना भावात् अस्माभिरपि राजधान्यो-दक्षिणेन इति अलेखि । इति श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्तौ ॥' 'पूर्व के अन्दर उत्तर कुरु के वक्षस्कारों में सिद्ध हरिस्सह शिखर को छोड़कर अन्य शिखर के स्वामियों की राजधानियां अनुक्रम से वायव्व कोने में, और ईशान कोण में यथा योग कही गयी है, उसी अनुसार देव कुरु के वक्षस्कारों के अन्दर सिद्ध हरि शिखर बिना शिखरों के अधिपतियों की राजधानियां अनुक्रम से अग्निकोण और नैऋत्यकोण में यथोचित कहना चाहिए । परन्तु प्रस्तुत सूत्र की एक भी प्रति-नकल में अथवा पूज्य मलय गिरि कृत क्षेत्र विचार की टीका में भी ऐसा दिखता नहीं है । इसलिए हमने भी इस तरह नहीं लिखा । ये राजधानी दक्षिण में ही होने का लिखा है, इस तरह श्री जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की टीका में विधान अनयोर्नगर्योदैर्ध्य व्यासोच्चत्वादिकं समम् । गन्धमादन सन्माल्यवतोरिव विभाव्यताम् ॥३६६॥ इस सौमनस और विद्युत्प्रभ' पर्वतों की लम्बाई-चौड़ाई और ऊंचाई आदि सब गन्ध मादन और माल्यवान पर्वतों के समान समझना । (३६६) सन्त्यथाभ्यां पर्वताभ्यामंकपाली कृता इव। मेरोदक्षिणतो देवकुरवो निषधादुदक् ॥३६७॥ . अब महा विदेह के चौथा विभाग देव कुरु के विषय में कहते हैं - इन दोनों पर्वतों के गोद में रहे हो इस तरह ‘देव कुरु क्षेत्र' मेरू पर्वत से दक्षिण में और निषधाचल से उत्तर दिशा में है । (३६७)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy