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(३०७)
क्षेत्र समास में श्री जिनभद्र गणि महाराज ने कहा है, कि श्री लक्ष्मी देवी के पद्म सरोवर में अनुक्रम से जो परिवार बताया है, उसी तरह से जम्बू वृक्ष के 'अनादृत' देव का भी जानना । (३२७)
तथैवोक्तं जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति वृत्तौ
अत्राप्येकैकया पंक्त्या परिक्षेपे विवक्षिते । 'न जम्बूनामवकाशः श्री देवी पद्मवत् भवेत् ॥३२८॥ तदिहापि परिक्षेप जातयस्तित्र इत्यहो ।
ज्ञेयं जम्बू पंक्तयस्तु यथायोगमनेकशः ॥३२६॥
जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की टीका में भी यही भावार्थ कहा है कि - यहां भी एक-एक पंक्ति से विवक्षित वलय में श्री देवी के कमल के समान जम्बू वृक्षों का अवकाश नहीं हो सकता है । इसलिए यहां भी वलय तीन ही समझना चाहिए । और जम्बू वृक्ष की पंक्तियां तो योग अनुसार से अनेक ही है । (३२८-३२६).
स चैवं सपरीवारो जम्बू वृक्षः समन्ततः । काननैः योजनशतमानैः त्रिभिः समावृतः ॥३३०॥ आनतरेण मध्यमेन बाह्येन च यथाक्रमम् । तत्रादिमे बने पूर्वादिषु दिक्षु चतसृषु ॥३३१॥ पंचाशंतं योजनानि वगाह्यात्रान्तरे महत् । एकैकं भवनं जम्बूशाखाभवनसन्नियम् ॥३३२॥ युग्मं ॥
उपरोक्त परिवार वाले इस जम्बू वृक्ष के आस-पास सौ-सौ योजन के मान वाले तीन वन आए है, उसमें एक अभ्यन्तर, दूसरा मध्यम और तीसरा बाह्य है ।
प्रथम अभ्यन्तर वन में पूर्वादि चारों दिशाओं में पचास-पचास योजन छोड़ने के बाद - जम्बू वृक्ष की शाखा के भवन समान एक एक बड़ा भवन है । (३३०-३३२)
भवनेष्वेषु सर्वेषु प्रत्येकं मणि पीठिका । तत्रानादृतदेवस्य शयनीयं श्रमापहम् ॥३३३॥
इन प्रत्येक भवन में मणि पीठिका है, और इस मणि पीठिका ऊपर अनादृत देव को आराम करने की शय्या है । (३३३)
तस्मिन्नेवादिमवनखंडेऽखंड श्रियोज्जवले । पंचाशतो योजनानामैशान्या समतिकमे ॥२३४॥