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सर्वेऽपि योजनशतोत्तुंगा रम्या हिरण्मयाः । विष्कम्भायामतो मूले योजनानां शतं मताः ॥२६८॥ मध्ये पंचसप्तति च, योजनानि प्रकीर्तिताः । पंचाशतं योजनानि मस्तके विस्तृतायताः ॥२६६॥ युग्मं ॥
ये सब एक सौ योजन ऊँचे हैं और स्वर्णमय हैं। इसका मूल में विस्तार एक सौ योजन का है, मध्य में पचहत्तर योजन है और ऊपर का विस्तार पचास योजन का कहा है । (२६८-२६६) .
शतत्रयं षोडशाढयं किंचिद्विशेषतोऽधिकम् । योजनानि परिक्षेपः तेषां मूले प्रकीर्तितः ॥२७०॥ मध्ये विशेषभ्याधिका सप्तत्रिंशा शतद्वयी । सातिरे काष्टपंचाशद्युक्तं शतमथोपरि ॥२७१॥ युग्मं ॥
इनकी परिधि अर्थात् घेराव मूल में तीन सौ सोलह योजन से कुछ अधिक है, मध्य में दो सौ साढे तीस योजन से कुछ अधिक है और ऊपर एक सौ अट्ठावन योजन से कुछ अधिकं कहा है । (२७०-२७१)
वसुन्धरावधुक्रीडास्वर्णसारिसमाः स्थिताः । दक्षिणोत्तरपंक्त्यैते वेदिका वनमण्डिताः ॥२७२॥
पृथ्वी रूपी वधू को खेलने-क्रीडा करने के लिए सुवर्ण के चौपड़ समान ये पर्वत पद्मवेदिका और बगीचे द्वारा शोभते हुए उत्तर-दक्षिण श्रेणिबद्ध रहे हैं । (२७२) ..
कांचनप्रभपाथोजाद्यलंकृत जलाश्रयाः । कांचनाख्यास्ततो यद्वा कांचनाख्यैः सुरेः श्रिताः ॥२७३॥
इसके ऊपर कांचन समान कान्ति वाले कमलों से युक्त जलाशय होने से अथवा कांचन नाम के इसके अधिष्ठायक देव होने से, इसका कांचन नाम कहा जाता है । (२७३)
सर्वेऽप्येकै क प्रासादावतंसाश्रितमौलयः । प्रासादास्ते च यमकप्रासादसद्दशा मताः ॥२७४॥
इस कांचन पर्वत के शिखर पर एक-एक सुन्दर प्रासाद है, वे सर्व प्रासाद यमक पर्वत के प्रासाद समान होते हैं । (२७४)