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(२६३) अथवा यमकानामशकुन्याकृतिशालिनौ । ततस्तथोदितौ स्वर्णमयो गोपुच्छसंस्थितौ ॥२४२॥
इनको 'यमक' नाम इस कारण से कहा है, कि जुड़वां भाईयों के समान उनका स्वरूप परस्पर एक समान जिनेश्वर भगवान ने कहा है, अथवा तो इनकी यमक नामक पक्षी सद्दश आकृति है। वे स्वर्णमय तथा गोपुच्छ आकार से है । (२४१-२४२)
व्यासायामपरिक्षेपतुंगत्वो द्विद्धतादिभिः । हरिस्सिहोपमौ पद्मवेदिकावनमण्डितौ ॥२४३॥ तयोः पर्वतयोौलौ भूमिभागोऽतिबन्धुरः ।
प्रत्येकं तत्र चैकैकः स्यात्प्रासादावतंसकः ॥२४४॥
इसकी लम्बाई चौड़ाई, घेराव, ऊँचाई और गहराई आदि हरिस्सह पर्वत के समान हैं । वे पद्मवेदिका और बगीचे के कारण बहुत सुन्दर लगते हैं, इनके ऊपर भूमि का भाग अत्यन्त मनोहर है और वहां एक-एक महान प्रासाद है । (२४३-२४४)
द्वाषष्टिं योजनान्य‘धिकानि स समुच्छ्रितः । .योजनान्येकत्रिंशतं क्रोशं च विस्तृता यतः ॥२४५॥
वे प्रासाद साढे बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस लम्बे-चौड़े हैं । (२४५) :
तन्मध्ये सपरीवारमस्ति सिंहासनं महत् । .. यमकाख्यामहार्ह तच्छेषं विजयदेववत् ॥२४६॥
उसके अन्दर 'यमक' नामक देव के योग्य बड़े परिवार वाले सिंहासन आये हैं और शेष स्वरूप विजयदेव अनुसार समझना । (२४६) - मेरोरूत्तरतो जम्बूद्वीपेऽन्यत्र निरूपिते ।
राजधान्यौ यमकयोनिःशेषं विजयोपमे ॥२४७॥
दूसरे जम्बूद्वीप के अन्दर मेरू पर्वत के उत्तर में विजयदेव की राजधानी के समान ही यमक देवों की राजधानियां हैं । (२४७)
यदुक्तं मन्तरं नीलवतो यमक भूभृतोः । यमकाद्याद्य हृदयो स्ताव देवानतरं भवेत् ॥२४८॥