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(२६०) और ऊपर दो कला है । जिनेश्वर प्रभु ने कहा है । इस विषय में पूर्वाचार्य ने जो उपपत्ति (युक्ति) कही है वह इस तरह है - (२२०-२२१)
महा विदेह विष्कम्भे मेरू विष्कम्भवर्जिते । अर्धीकृते कुरू व्यासमानं भवति निश्चितम् ॥२२२॥
महाविदेह क्षेत्र के चौड़ाई से मेरू पर्वत की चौड़ाई को कम करके बाद में आधा करने से उत्तर का व्यास आता है ।
त्रिपंचाशद्योजनानां सहस्राणि भवेदिह । प्रत्यंचा नीलवत्पावें सा चैवं परिभाव्यताम् ॥२२३॥ . 'भद्रशालवनायामो द्विगुणो मन्दरान्वितः । ।
गजदन्त व्यास हीनः कुरू जीवामितिर्भवेत् ॥२२४॥.
इसकी जीवा नीलवंत पर्वत के पास तिरपन हजार योजन है; वह इस प्रकार - भद्रशालवन की लम्बाई को द्वि गुणा करके उसमें मेरू पर्वत की चौड़ाई मिलाकर, उसमें से गजदंत का व्यास निकाल देने से जो संख्या आती है, वह कुरु की जीवा है । वह इस प्रकार २२,०००x२ = ४४,०००+१०,००० = ५४,०००१,००० = ५३,००० होता है । (२२३-२२४) ।
योजनानांसहस्राणि षष्टिः किंच चतुःशती । अष्टादशाधिका शेषा कला द्वादश तद्धनुः ॥२२५॥ तच्चैवम् – आयाममानयोोंगे उभयोर्गजदन्तयोः ।
भवेत्कुरुधनुःपृष्टमानं मेरू समीपतः ॥२२६॥ इसका धनुः पृष्ट साठ हजार चार सौ अठारह योजन और बारह कला है, वह इस प्रकार से - दोनों गजदंत पर्वतों के लम्बाई को जोड़ लगाने से यही मेरूपर्वत के नजदीक कुरु का धनुः पृष्ट का मान है । (२२५-२२६)
अत्यन्तं रमणीयात्र क्षितिरितिविवर्जिता. । कल्पद्रुमा दशविधाः पूर यन्तिजनेप्सितम् ॥२२७॥ .
इस उत्तर कुरु क्षेत्र की धरती अत्यन्त रमणीय है, और वहां किसी भी प्रकार के उपद्रव का भय नहीं होता, वहां दस प्रकार के कल्प वृक्ष होते हैं । वे युगलियों का सर्व मावांछित पूर्ण करते है । (२२७)