SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२८६) के पास में पूर्व कहे अनुसार विस्तार और गहराई को प्राप्त करते हैं, ये दोनों मानो नीलवान पर्वत रूपी हस्ती के दो दन्त शूल न हों इस तरह शोभायमान होते हैं। (२१३-२१४) प्रत्येकं च पद्मवरवेदिकावनमण्डितौ । कुरुतस्तौ मिथो योगादधिज्यधनुराकृतिम् ॥२१५॥ इन दोनों पर्वत पर पद्मवेदिका और बगीचा शोभायमान होता है । इनका परस्पर योग होने से इनकी आकृति रस्सी चढ़े धनुष्य के समान होती है । (२१५) गन्धमादनसन्माल्यवतो: पर्वतयोरथं । अभ्यन्तरे स्थिताः कान्तभुजयोरिव कामिनी ॥२१६॥ मन्दरानेरूत्तरस्यां दक्षिणस्यां च नीलतः । उत्तराः कुरवः ख्याता अनुत्तरचिदाश्रयैः ॥२१७॥ युग्मं ॥ अब मंदराचल की उत्तर में और नीलवान की दक्षिण में उत्तर कुरुक्षेत्र आया है, वह भरतार की दो भुजाओं के बीच रही स्त्री के समान गन्धमादन और माल्यवान इन दोनों पर्वतों के बीच रहा है । (२१६-२१७) उदग्दक्षिणविस्तीर्णास्ता पूर्व पश्चिमायताः । . अर्धेन्दुमण्डलाकारा भुवोभालमिवाहिताः ॥१८॥ यह उत्तर कुरुक्षेत्र उत्तर दक्षिण में चौड़ा है, और पूर्व पश्चिम में लम्बा है, इसका आकार अर्धचन्द्र समान होने से यह पृथ्वी के ललाट समान दिखता है । (२१८) अत्रोत्तर कुरुर्नाम देवः पल्योपम स्थितिः । वसंत्यतस्तथा ख्याता यद्वेदं नाम शाश्वतम् ॥२१॥ वहां पल्योपम के आयुष्य वाला उत्तर कुरु नाम का देव रहता है, इससे वह उत्तर कुरु कहलाता है । अथवा यह शाश्वत ही नाम समझना । (२१६) एकादश सहस्राणि शतान्यष्ट तथोपरि ।। योजनानां द्विचत्वारिंशत् कलाद्वितयं तथा ॥२२०॥ दक्षिणोत्तर विस्तार एतासां वर्णितो जिनैः । ज्ञात व्यात्रोपपत्तिश्च पूर्वाचार्य प्रदर्शिता ॥२२१॥ युग्मं ॥ इसका उत्तर दक्षिण का विस्तार ग्यारह हजार आठ सौ बियालीस योजन
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy