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चौड़ाई मध्य भाग में होती है, नीलवान और निषध पर्वत की जया और जीवा में से निकाल देने से शेष दो कला रहती है, अर्थात् उसमें से एक-एक कला के समान दोनों वन की चौड़ाई समझना । (१६६-१७०)
दैर्येऽतीते योजनादो यावति व्यास इष्यते । निहन्यते तद् द्वाविंशैरेकोनत्रिंशता शतैः ॥१७॥ पुनरेकोन विंशत्याहत्य लक्षैस्त्रिभिर्भजेत् । सहस्रपंचदशाक सार्धद्विशतसंयुतैः ॥१७२१॥ . लब्धव्यासोयोजनादिस्यादत्राभीप्सितास्पदे । भाज्यभाजकयोरत्रोपपत्तिर्लिख्यते स्फुटा ॥१७३॥ . . . परमव्यास रूपोऽत्र सर्वत्र गुणको धुवः । . तेन हन्वैकोनविंशत्याहतिस्तु कलाकृते ॥१७४ा : आयाम एव परमो भाजकोऽत्र ध्रुवो भवेत् । उपरिस्थिकलायुग्मप्रक्षेमाय कलीकृतः ॥१७५॥ .. .
अमुक लम्बाई जाने के बाद वहां चौड़ाई जाननी हो तो उस लम्बाई को दो हजार नौ सौ बाईस से गुणा करना, और फिर कला करने के लिये उन्नीस से गुणा करना उससे जो संख्या आए उसे तीन लाख पंद्रह हजार दो सौ पचास (जो वनमुख की लम्बाई वाला है) उस संख्या से भाग देना, उसका परिणाम जो आए उतनी कला के इच्छित स्थल की चौड़ाई आ जाती है । यही भाज्य और भाजक की संख्या उत्पत्ति में स्पष्ट कहा जाता है । उत्कृष्टी चौड़ाई यही सर्वत्र ध्रुव गुणक होता है, उस से गुणा करने के बाद में कला करने के लिए उन्नीस गुणा करना । यहां उत्कृष्ट लम्बाई ही ध्रुव भाजक होता है । कला के लिए निकालना । अथवा इसमें ऊपर दो कला मिलाने के लिए है । (१७१-१७५)
अथोत्तरकुरुणां यौ पर्वतौ सीमकारिणौ । गन्धमादनसन्माल्य वन्तौ तौ वर्णयाम्यहम् ॥१७६॥
उत्तर कुरु क्षेत्र की सीमा नक्की करने वाले गन्ध मादन और माल्यवान नाम के दो पर्वत कहे गये हैं, अब उसका वर्णन करने में आता है ।
तत्रोत्तरकुरुणां यः पश्चिमायां व्यवस्थितः । वायाव्यां मेरूतः सोऽयं प्रश्रप्तो गन्धमादनः ॥१७७॥